Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 77
________________ केवलज्ञान रूप उत्कृष्ट प्रकाश से उज्ज्वल, (अविध्वंसिनी) अविनाशी (लक्ष्मी) मोक्षलक्षमी की (इच्छन्) इच्छा करता हुआ मैं ( परं तीर्थमंगलम् ) उत्कृष्ट तीर्थ तथा मंगलरूप ( उदितं ) कहे गये (सह पञचभेद) पांच भेदों से सहित ( आचार) आचार को तथा ( सच्चरित्रमहतः) सम्यक् चारित्र से महान (समग्रान्) सम्पूर्ण (निर्ग्रन्थान् ) परिग्रह रहित ( यतीन् अपि) मुनियों को भी ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ । I hereby humbly and respectfully pay obeisance to utmost auspicious and holy place named five kinds of conduct (Panchāchāra). I duly bow down and say best regards to entirely possessionless saints and who are great due to the observance of right conduct by them. I do also in order to win over the Goddess of salvation who is immersed in the eternal bliss of soul (due to the fruitioning of karmas), is unparalled, is enlightened with finest light of omni-perception and omni-knowledge and is also indestructible. चरित्र पालने में दोषों की आलोचना (Criticism of faults in practising right conduct) अज्ञानाद्यदवीवृतं नियमिनोऽवर्तिष्यहं चान्यथा, तस्मित्रर्जितमस्यति प्रतिनवं चैनो निराकुर्वति । वृते सप्तयीं निधिं सुतपसामृद्धिं नयत्यदुतं, • तन्मिथ्या गुरुदुष्कृतं भवतु मे, स्वनिंदितो निंदितम् ।।9।। मैंने (अज्ञानात्) अज्ञान से (नियमिनः ) मुनियों को (यत्) जो (अन्यथा अवीवृतं) आगम प्रतिकूल प्रवृतन कराया हो (च) अथवा ( अवर्तिषि अहं) मैंने स्वयं आगम के प्रतिकूल वर्तन किया हो; ( तस्मिन्) उस अन्यथा वर्तन में (अर्जितम् एनः) संचित पापों को (अस्याति) नष्ट करने वाले (च) और (प्रतिनव) प्रतिक्षण नवीन-नवीन बंधने वाले (एनः) पापों को (निराकुर्वति) निराकरण करने अर्थात दूर करने वाले (सुतपसां ) श्रेष्ठ तपस्वियों की ( अद्भुतं निधिं सप्ततयीं ऋद्धि) आश्चर्यकारी निधि रूप सात प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त करने वाले (वृते) ग्रहण किये संयम में जो अन्यथा प्रवृत्ति हुई है (निन्दितम् ) निन्दा के पात्र (स्व) अपने आपकी (निन्दितः) निन्दा करने वाले (मे) मेरे (तत्) वह (गुरू- दुष्कृत) भारी पाप (मिथ्या भवतु ) मिथ्या हो । Gems of Jaina Wisdom-IX ◆ 75

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