Book Title: Gems Of Jaina Wisdom Author(s): Dashrath Jain, P C Jain Publisher: Jain GranthagarPage 73
________________ संस्थापन) हितकारी संयम आदि के मार्ग से च्युत व्यक्ति को पुनः सम्यक् प्रकार से मार्ग में स्थिर करना। इस प्रकार (दर्शन-गोचर) सम्यक्दर्शन विषयक (सुचरित) उत्तम आचार को (आदरात्) आदर से (नमन्) नमस्कार करता हुआ मैं (मूना) सिर से (वन्दे) नमस्कार करता हूँ। I here by bow down and pay obeisance to perception conduct (Darshanāchār); which consit of eight organs (Ashtāng) as given below- Doubtlessness (Nihshankita). i.e. the removal of all doubts and suspicioans; desirelessness (Nihkānchita) i.e. abandonment/giving up of enjoyments and reenjoyments; unblurred vision (Amudha drasti) i.e. the abondonment of blurt vision, love for coreligionist (Vatsalya) i.e. love for of persons with gems trio, non-disgust (Nirvichikitsā) i.e. being free from disgust, safe guarding (Upaguhan) i.e. protecting the interest of religion, glorification (Prabhāvanā) that is glorification of the governance of Jina, stabilization (Sthitikaran)i.e. to rehabilitate/stabilize persons fallen from the path of restraint. तपाचार (बाह्यतप) का स्वरूप (Nature of Tapachara) एकान्ते शयनोपवेशन-कतिः संतापनं तानवम. संख्या-वृत्ति-निबन्धना-मनशनं विष्वाण-मर्दोदरम्। त्यागं चेन्द्रिय-दन्तिनो मदयतः स्वादो रसस्यानिशम्, षोढ़ा बाह्य-महं स्तुवे शिव गति-प्राप्त्यम्युपायं तपः।।4।। (शिवगति-प्राप्ति-अभि-उपाय) मोक्षगति की प्राप्ति के उपायभूत (एकान्ते शयन-उपवेशन कृतिः) एकान्त स्थान में शयन-आसन करना, (तानवं सन्तापन) शरीर को संतापित करना अर्थात् कायक्लेश करना, (वृत्ति-निबन्धनां संख्या) चर्या में कारण-भूत संख्या को नियमित करना, (अनशन) उपवास करना, (अर्द्ध उदरम् विष्वाण) ऊनोदर आहार करना, (च) तथा (इन्द्रिय दन्तिनः मदयतः स्वादः रसस्य अनिशं त्याग) इन्द्रिय रूपी हाथियों के मद को बढ़ाने वाले स्वादिष्ट रसों का हमेशा त्याग करना, ये (षोढ़ा बाह्यं तपः) छः प्रकार के बहिरंग तप हैं; (अहम् स्तुवे) मैं इनकी स्तुति करता हूँ। I hereby adore all the six kinds of externals austerities, Gems of Jaina Wisdom-IX • 71Page Navigation
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