Book Title: Gems Of Jaina Wisdom Author(s): Dashrath Jain, P C Jain Publisher: Jain GranthagarPage 69
________________ clairvoyance (deshāwadhi), supreme clairvoyance (parmāwadhi), perfect clairvoyance (sarvāwadhi) etc. परमनसि स्थितमर्थं मनसा परिविद्य मन्त्रि-महित-गुणम्। ऋजु-विपुलमति-विकल्पं स्तौमि मनःपर्यय ज्ञानम् ।।28।। (परमनसि) दूसरे के मन में (स्थितम् अर्थम्) स्थित रूपी पदार्थ को (मनसा परिविद्यमंत्रिमहितगुणम्) मन से जानकर जो महर्षियों से पूजित कृतकृत्य गुण को प्राप्त होता है तथा जो (ऋजु-विपुलमति-विकल्प) ऋजुमति व विपुलमति दो भेद रूप हैं, उस (मनःपर्यय ज्ञानम्) मनःपर्यय ज्ञान की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ। I adore that telipathic knowledge (manahparyaya gyān)-which knows the object existing in other's mind by his own mind, which has got the merits/quality of accomplishment (kratkrat guna). Which is worshiped by great rishis. It is of two kinds- straight telepathy (risumati) and complex telepathy (vipulmati). क्षायिक-मनन्त-मेकं त्रिकाल-सर्वार्थ-युगपदवभासम्। सकल-सुख-धाम सततं वन्देऽहं केवलज्ञानम् ।।29 ।। (क्षायिकम अनन्तम) जो ज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्राप्त होने से क्षायिकं है, कभी नाश न होने से अनन्त है, जो (एक) एक अद्वितीय है, जिसके साथ कोई क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रहता (त्रिकाल-सर्वार्थ-युगपत्-अवभासम्), जो तीनों कालों सम्बन्धी समस्त पदार्थों को एक साथ जानता है। (सकलसुखधाम) पूर्ण सुखों का स्थान है, ऐसे (केवलज्ञानम्) केवलज्ञान को (अहम्) मैं (सततम्) हमेशा (वन्दे) नमस्कार करता हूँ। I always/constantly respectfully pay obeisance to omniscience-which is descretive as it arises due to the destruction of knowledge obscuring karmas. It is unending/ endless as which never ends (destroyed), which is singular (second to non), which is not associated with any destructive karma, siubsidential knowledge, which knows all the object of all the three universes of all three times simultaneously and which is the abode of perfect eternal bliss. एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्त-लोक-चभूषि। लघु भवतान्ज्ञानर्द्धि-निफलं सौख्य-मच्यवनम्।।30।। Gems of Jaina Wisdom-IX 67Page Navigation
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