Book Title: Gems Of Jaina Wisdom Author(s): Dashrath Jain, P C Jain Publisher: Jain GranthagarPage 50
________________ The afore mentioned great river is immensely large, where in Gandharaj, wheel wielding emperors, lords of celestial beings, superior bhavyas and many others have taking the sacred bath, much devotionally in order to wash/cleans the filth of sins of the fifth period. अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि, दुस्तर- समस्त-दुरितं दूरम् । व्यपहरतु परम-पावन-मनन्य, जय्य-स्वभाव-भाव गम्भीरम् ।।30 ।। जो (परम-पावनम् ) अत्यन्त पवित्र है तथा (अनन्यजय्य-स्वभाव-भाव - गम्भीर) अन्य परवादियों से अजेय स्वभाव वाले पदार्थों से गंभीर हैं; ऐसे अरहन्तदेव रूपी महानद के उत्तम तीर्थ में (स्नातु) स्नान करने के लिये (अवतीर्णवतः) उतरे हुए, ( मम अपि) मेरे भी ( दुस्तर - समस्त - दुरित) बड़े भारी समस्त पाप (दूरं व्यपहरतु) दूर से ही नष्ट करो । May my huge, very great sins eliminated as I have come down to take the holy bath in the consecrated waters of the aforementioned great river of Arihanta devas. This great river is most sacred and is invincible by the opponents of the rule of Jina and is well equipped by the objects necessary there for. अताम्र- न्यनोत्पलं सकल - कोप - वन्हे - र्जयात्, कटाक्ष-शर- मोक्ष -हीन-मविकारतोद्रेकतः । विषाद-पद- हानितः प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव ते हृदय-शुद्धि - मात्यन्तिकीम् । ।31 ।। हे प्रभो (सकल-कोप-वह्नेः -जयात्) सम्पूर्ण क्रोध रूपी अग्नि को जीत लेने से ( अताम्र- नयन - उत्पल) जिनके नेत्र रूप कमल लाल नहीं हैं, (अविकारतः - उद्रेकतः) विकारी भावों का उद्रेक नहीं होने से ( कटाक्ष-शर- मोक्षविहीनं) जो कटाक्ष रूप बाणों के छोड़ने से रहित हैं तथा (विषाद -मद- हानितः) खेद व अहंकार का अभाव होने से जो (सदा-प्रहसितायमानं मुख) सदा हंसता हुआ-सा ज्ञात होता है; ऐसा आपका मुख (ते) आपकी ( आत्यन्तिकीं हृदय शुद्धिम् ) अत्यंत/ सर्वोकृष्ट / अविनाशी हृदय की शुद्धि को ही ( कथयति इव) मानो कह रहा है। O lord! your face appears to express the purity of your indestructible minds and hearts; where in as your lotus eyes 48 Gems of Jaina Wisdom-IXPage Navigation
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