Book Title: Gems Of Jaina Wisdom Author(s): Dashrath Jain, P C Jain Publisher: Jain GranthagarPage 62
________________ Padānusaarini Buddhi with sambhinna strota buddhi Sphutbeej buddhi which is associated and which is the object of scriptural knowledge due to the generation of scriptural knowledge there by. श्रुतमपि-जिनवर-विहितं गणधर-रचितं द्वयनेक-भेदस्थम्। अंगांगबाह्य-भावित-मनन्त-विषयं नमस्यामि।।4।। जो (जिनवर विहित) जिनेन्द्र देव के द्वारा अर्थरूप जाना गया है (गणधररिचत) गणधरों के द्वारा जिसकी रचना की गई है, (द्वि-अनेक-भेद-स्थम्) जो दो और अनेक भेदों में स्थित है, (अंग-अंग बाह्य भावित) जो अंग और अंग बाह्य के भेद से प्रसिद्ध है तथा (अनन्त-विषय) अनन्त पदार्थों को विषय करने वाला है (श्रुतम् अपि) उस श्रुत-ज्ञान को भी (नमस्यामि) मैं नमस्कार करता हूँ। I also pay my obeisance to that scriptural knowledge - which has been known by shri Jineņdra deva in the form of determination/arth, which has been composed by Ganadharaj which is present in two and more than one kinds, which is well known with its kinds ofAngas (primary canons) andAngabaahya (secondary canons) and which knows endless objects. पर्यायाक्षर-पद-संघात-प्रतिपत्तिकानुयोग-विधीन्। प्राभृतक-प्रामृतकं प्रामृतकं वस्तु पूर्वं च।।5।। तेषां समासतोऽपि च विंशति-भेदान् समश्नुवानं तत्। वन्दे द्वादशधोक्तं गम्भीर-वर-शास्त्र-पद्धत्या।।6।। (पर्याय-अक्षर-पद-संघात-प्रतिपत्तिक-अनुयोग विधीन) पर्याय, अक्षर, पद संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग विधि को (च) और (प्राभृतक प्राभृतकं वस्तु पूर्वी प्राभृतक-प्राभृतक, प्राभृतक, वस्तु तथा पूर्व को व (तेषां समासतः अपि च) उनके भी समास से होने वाले पर्याय समास, अक्षर समास, पद समास, संघात समास, प्रतिपत्तिक समास, अनुपयोग समास, प्राभृतक प्राभृतक समास, प्राभृतक समास, वस्तु समास और पूर्व समास इन (विंशतिभेदान्) बीस भेदों को (समश्नुवान) व्याप्त करने वाले तथा (गंभीर-वर-शास्त्र-पद्धत्या) गंभीर उत्कृष्ट शास्त्र पद्धति से (द्वादशधा उक्त) बारह प्रकार के कहे गये (तत्) उस (श्रुतं वन्दे) श्रुतज्ञान को (वन्दे) मैं वन्दन करता हूँ/नमन करता हूँ। 60 • Gems of Jaina Wisdom-IXPage Navigation
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