Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 61
________________ श्रुत भक्ति (Shruta Bhakti) स्तोष्ये संज्ञानानि परोक्ष - प्रत्यक्ष - भेद -भिन्नानि। लोकालोक - विलोकन - लोलित - सल्लोक - लोचनानि सदा।।।।। (लोक-अलोक-विलोकन-लोलित-सल्लोक-लोचनानि) लोक और अलोक को देखने में उत्सुक/लालायित सत्पुरुषों के नेत्र स्वरूप ऐसे (परोक्ष-प्रत्यक्ष-भेद-भिन्नानि) परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से युक्त (संज्ञानानि) सम्यक् ज्ञानों की (मैं पूज्यपाद आचाय) (सदा) हमेशा (स्तोष्ये) स्तुति करूंगा। I pay my obeisance to right knowledge which are the eyes of truthful persons keen to know the universe and nonuniverse-divisible into catagories of direct knowledge and indirect knowledge. अभिमुख-नियमित-बोधन-माभिनिबोधिक-मनिन्द्रियेन्द्रियजम्। बहाधवग्रहादिक - कृत - षट्त्रिंशत् - त्रिशत - भेदम् ।।2।। विविधर्द्धि-बुद्धि-कोष्ठ-स्फुट-बीज-पदानुसारि-बुद्धयधिकम् । संभिन्न - श्रोतृ - तया, सार्ध श्रुतभाजनं वन्दे ।।3।। जो (अभिमख-नियमित-बोधन) योग्य क्षेत्र में स्थित स्पर्श आदि नियमित पदार्थों को जानता है, (अनिन्द्रिय-इन्द्रियज) मन व इन्द्रियों से उत्पन्न होता है व (बहु-आदि-अवग्रह-आदिक कृत-षत्रिशत त्रिशतभेदम्) बहु आदि 12 व अवग्रह आदि 4 की अपेक्षा से 336 भेदों से सहित हैं। (विविध-ऋद्धि-बुद्धि-कोष्ठस्फुट-बीज-पदानुसारि-बुद्धि-अधिकम्) जो अनेक प्रकार की ऋद्धि से सम्पन्न तथा कोष्ठबुद्धि, स्फुटबीजबुद्धि और पदानुसारिणी बुद्धि से अधिक परिपूर्ण है तथा (सभिन्न श्रोतृतया साध) संभिन्न श्रोत्रऋद्धि से सहित है (श्रुत-भाजन) श्रुतज्ञान की उत्पत्ति का कारण होने से श्रुतज्ञान का भाजन/पात्र हैं, उस (आभिनिबोधिक) आभिनिबोधिक/मतिज्ञान को (वन्दे) मैं नमस्कार करता हूँ। I pay my obeisance to sensual knowledge, which knows the proper object existing in Yogik region e.g. touch etc., which arises in senses and minds, which is divisible into three hundred thirty six (336) kinds inclusive of twelve kinds etc. and four kinds apprehension (Awagrah) etc. The sensual knowledge is equipped with many kinds of attainments and is filled with Kostha buddhi. -.-- Gems of Jaina Wisdom-IX 59

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