Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 59
________________ garlands, incense pot, eight auspicious objects and eight miracles etc. इच्छामि मंते! चेइय-भक्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । अहलोय-तिरियलोय-उड्ढलोयम्मि, किट्टिमाकिट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि तीसु वि लोएसु भवणवासियवाणविंतर-जोइसिय-कप्पवासियत्ति चउविहा देवा सपरिवारा दिव्वेण ण्हाणेण, दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण अक्खेण, दिव्वेण पुप्फेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण दीवेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण वासेण, णिच्चकालं अच्चेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमस्सामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं, समाहि-मरणं जिण-गुण-सम्मपत्ति होउ-मल्झं। (भंते!) हे भगवान् ! मैंने (चेइयभक्ति काउस्सगो कओ) चैत्यभक्ति संबंधी कायोत्सर्ग किया। (तस्सालोचेउ) उस सम्बन्धी आलोचना करने की (इच्छामि) मैं इच्छा करता हूँ। (अहलोय-तिरियलोय-उड्ढलोयम्मि) अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्व लोक में (जाणि) जितने (किट्टिमाकिट्टिमाणि) कृत्रिम-अकृत्रिम (जिण चेइयाणि) जिन चैत्यालय हैं; (ताणि सव्वाणि) उन सबकी (तीसु वि लोएस) तीनों लोकों में रहने वाले (भवणवासिय-वाणविंतर-जोइसिय-कपपवासियत्ति) भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी, कल्पवासी इस प्रकार (चउविहा देवा सपरिवारा) चार प्रकार के देव अपने परिवार के साथ (दिव्वेण ण्हाणेण, दिव्वेण गंधेण, दिव्वेण अक्खेण, दिव्वेण पुफ्फेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण दीवेण, दिव्वेण धूवेण, दिव्वेण वासेण) दिव्य जल, दिव्य गंध, दिव्य अक्षत, दिव्य पुष्प, दिव्य नैवेद्य, दिव्य दीप, दिव्य धूप, दिव्य फलों से (णिच्चकाल) सदाकाल (अच्चाति, पुज्जति, वंदति णमस्संति) अर्चा करते हैं, पूजा करते हैं, वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं; (अहमवि) मैं भी (इह संतो) यहाँ ही रहकर (तत्थ संताई) उन समस्त चैत्यालयों की (णिच्चकाल) सदाकाल (अंचेमि पूजेमि वंदामि, णमससामि) अर्चा करता हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ (दुक्खक्खओ, कममक्खओ, बोहिलाहो, सुगइमगमणं समाहिमरण) मेरे दुखों का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, रत्नत्रय की प्राप्ति हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो तथा (जिणगुण संपत्ति होउ मज्झ) जिनेन्द्र देव के गुणों की मुझे प्राप्ति हो। Marginal note on concluding prayer O God! I have performed body mortification relating to Chaityabhakti. I aspire to criticize it. What soever and where soever exist the natural and artificial temples of Jinas in all Gems of Jaina Wisdom-IX – 57

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