Book Title: Gems Of Jaina Wisdom Author(s): Dashrath Jain, P C Jain Publisher: Jain GranthagarPage 39
________________ knowledge, save us from the tresses and strains of mundane existence/worldly life. तदनु जयताज्जैनी वित्तिः प्रभंग - तरंगिणी, प्रभव-विगम धौव्य-द्रव्य-स्वभाव-विभाविनी। निरुपम-सुखस्येदं द्वारं विघटय निरर्गलम्, विगत-रजसं मोक्षं देयान् निरत्यय-मव्ययम् ।।3।। - (तदनु) जिनधर्म, जिनागम की स्तुति के बाद (प्रभंग तरंगिणी) स्यात् आस्ति, नास्ति आदि सप्तभंग रूप तरंगों से युक्त तथा (प्रभव-विगम-ध्रौव्य-द्रव्य-स्वभावविभाविनी) उत्पाद-व्यय, ध्रौव्य रूप द्रव्य के प्वभाव को प्रगट करने वाली (जैनी वित्तिः) जिनेन्द्र भगवान् की केवलज्ञानमयी प्रवृत्ति (जयतात) जयवन्त प्रवर्ते। इस प्रकार (इद) ये जिनदेव, जिनधर्म, जिनवाणी और जिनेन्द्र का केवलज्ञान रूप चतुष्टय (निरुपमसुखस्य) उपमातीत सुख के (द्वारं विघट्य) द्वार को खोलकर (निरर्गल) अर्गल रहित करें व (निरत्यम्) व्याधि रहित (अव्ययम्) अविनाशी (विगत रजस) कर्म रहित (मोक्ष) मोक्ष को (दयात) देवें। There after may the phenomenon/tendenery of omniscience of shri Jineņdra deva - which is associated/ equipped with the waves of seven divisions (fractions) e.g. “is”, “is not”, “in appriciable” etc. and which innunciates the nature of substances inclusive-generation, exhaustion, continuence - be victorious. May shri Jinendra deva, religion of Jina, utterings of Jina and the omniscience of shri Jinendra deva open the gate of incomparable eternal bliss by unfettering it, and give indestructible salvation, which is free from all elements and karmic bondages. अर्हतत्सिद्धाचार्योपाध्यायेभ्यस्तथा च साधुभ्यः। सर्व-जगद्-वन्येभ्यो नमोऽस्तु सर्वत्र सर्वेभ्यः।।4।। (सर्व जगत्-वन्देभ्यः) तीन लोक के समस्त प्राणियों से वन्दनीय (सर्वेभ्यः) समस्त (अर्हत्-सिद्ध-आचार्य-उपाध्यायेभ्यः) अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय (तथा च) और (सांधुभ्यः) साधुओं के लिये (सर्वत्र) जहाँ-जहाँ विराजमान हैं; (नमः अस्तु) मेरा नमस्कार हो। I pay my obeisance to all pure and perfect souls with body Gems of Jaina Wisdom-IX – 37Page Navigation
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