Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 41
________________ मिथ्याज्ञान-तमोवृत-लोकैक-ज्योति-रमित-गमयोगि। सांगोपांग-मजेयं जैनं वचनं सदा वन्दे ।।7।। (मिथ्याज्ञान-तमोवृत-लोक-एकज्योतिः) मिथ्या ज्ञान रूप अंधकार में डूबे लोक में जो अद्वितीय ज्योति रूप हैं, (अमित-गम-योगि) अपरिमित श्रुत ज्ञान से जो सहित हैं, (अजेय) अजेय हैं किसी परवादी के द्वारा जीतने योग्य नहीं है। ऐसे (साग-उपाग) अंग और उपांगो से युक्त (जैनं वचन) जिनेन्द्र वचन-जिनवाणी को (सदा वन्दे) मैं सदा नमस्कार करता हूँ। I always pay obeisance to the preachings of Jina- which is an unparalleled flame in the universe immersed in the intence darkness of falsehood and ignorance; which is associated with unbounded scriptural knowledge; which is invincible and is well framed by organs (angas) and suborgans (upānga). भवन-विमान-ज्योति-~न्तर-नरलोक विश्व-चैत्यानि। त्रिजग-दभिवन्दितानां त्रेधा वन्दे जिनेन्द्राणाम् ।।8।। (त्रिजगत् अभिवन्दिताना) तीनों लोकों के जीवों के द्वारा अभिवन्दनीय (जिनेन्द्राणाम्) अरहंत/जिनेन्द्रदेव की (भवन-विमान-ज्योतिः-व्यन्तर, नरलोक, विश्व चैत्यानि) भवनवासी, वैमानिक, ज्योतिषी, व्यन्तर देवों के विमानों में, समस्त निवास स्थानों में विराजमान तथा ढाई द्वीप/मनुष्यलोक में, सर्वलोक में विराजमान समस्त जिनबिम्बों की मैं (त्रेधा वन्दे) मन-वचन-काय से वन्दना करता हूँ। I pay obeisance to all the idols of Jinas installed in the vehicles of mansion dwellers, vehicle dwellers, stellars, perapetatic celestial beings, in all the temples of the whole human universe and all other universes with my mind, speech and body. भुवनत्रयेऽपि भुवनत्रयाधिपाभ्यर्च्य-तीर्थ-कर्तृणाम्। वन्दे भवानि-शान्त्यै विभवाना-मालयालीस्ताः।।।। (विभवानाम्) विरक्त (भवनत्रय-अधिप-अभ्यच्य) तीन लोकों के पतियों के द्वारा पूज्य (तीर्थकर्तृणाम्) तीर्थंकरों के (भुवनत्रयेऽपि) तीनों लोकों में (आलय-अली) जो मन्दिरों की पंक्तियां हैं (ताः); उनको (भव-अग्नि-शान्त्यै) संसार रूपी अग्नि को शान्त करने के लिये (वन्दे) मैं नमस्कार करता हूँ। Gems of Jaina Wisdom-IX – 39

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