Book Title: Gems Of Jaina Wisdom
Author(s): Dashrath Jain, P C Jain
Publisher: Jain Granthagar

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Page 27
________________ (पापिष्ठेन, दुरात्मना, जड़धिया) मुझ पापी, दुष्ट, मन्दबुद्धि ने, (मायाविना, लोभिना) मायाचारी लोभी ने, (रागद्वेषमलीमसेन मनसा) राग-द्वेष की मलीनता से मलीन मन से; (यत) जो (दुष्कम) पाप कर्म (निर्मितम) किये हैं; (अधुना) अब (भवतः श्री पादमूले) आप श्री जिनदेव के चरण मूल में (अह) मैं (कर्मणाम निर्वर्तये) कर्मों का क्षय करने के लिये (सतत) हमेशा के लिये (निन्दापूर्वम्) निन्दा पूर्वक/पश्चाताप करता हुआ (जहामि) छोड़ता हूँ। Oh lord of three universes, oh shri Jineņdra dev! whatever sins I commited due to impurities of my mind sinfulness, wickedness, ignorance, deceitfulness, greed, attachments and aversions; I abandon them forever before your lotus feet in order to attain salvation. जिनेन्द्रमुन्मुलित कर्मबन्धं, प्रणम्य सन्मार्गकृत स्वरूपम्। अनन्तबोधादि भवंगुणौघं, क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये।।2।। जिन्होंने (कर्मबन्धं उन्मूलित) चार घातिया कर्म को जड़ से क्षय कर दिया है, (सन्मार्गकृतस्वरूपम्) समीचीन मुक्ति मार्ग अनुसार अपने स्वरूप को प्रकट किया है, (अनन्तबोधादि भवं गुणौध) उस अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य को धारण करने वाले (जिनेन्द्रम्) जिनेन्द्र देव को (प्रणम्य) नमस्कार करके मैं (क्रियाकलापं प्रगटं प्रवक्ष्य) क्रिया-कलाप को प्रकट रूप कहूँगा। I hereby bow down and pay obeisance to shri Jinendra dev - who has destroyed and eradicated his four fatal karmas, who has purified the soul by adopting the path of salvation, who upholds infinite perception, infinite knowledge, infinite bliss and infinite prowess. I shall hence forward express my wrongs in words. Gems of Jaina Wisdom-IX – 25

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