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प्रवचन-५० आन्तरिक शत्रु पर विजय पानेवाला मनुष्य, इन्द्रियविजेता बनेगा ही। आन्तरिक शत्रु से दबा हुआ व्यक्ति, लाख उपाय करने पर भी इन्द्रियविजय नहीं पा सकता! काम-क्रोधादि के साथ इन्द्रियों का प्रगाढ़ संबंध है! ___ श्री स्थूलभद्रजी के सामने श्रृंगार सजकर कोशा नृत्य करती थी न? परन्तु स्थूलभद्रजी की इन्द्रियों में चंचलता या प्रकंपना नहीं आयी थी! क्यों नहीं आयी थी? चूंकि वे काम-शत्रु के विजेता थे! यदि कामवासना पर उन्होंने विजय नहीं पायी होती तो कोशा के स्नेहपास में वे बंध जाते! और उसी कोशा को देखते ही सिंहगुफावासी मुनि विचलित हो गये थे, इन्द्रियाँ चंचल हो गई थीं....क्यों? चूंकि वे कामविजेता नहीं बने थे। आन्तरिक शत्रु 'काम' पर पूर्णरूपेण विजय नहीं पायी थी उन्होंने। ___ हालाँकि श्रमणजीवन में तो पूर्णतया इन्द्रियविजय होना चाहिए, परन्तु वह पूर्ण विजय तभी संभव है कि आंशिक विजय पाने का पुरूषार्थ जीवन में शुरू किया गया हो। गृहस्थ-जीवन में रहते हुए कुछ मात्रा में आन्तरिक शत्रु पर विजय पा लिया जाये तो साधुजीवन में पूर्णरूपेण इन्द्रियविजय पाने का पुरूषार्थ सरल हो सकता है! ___ अब, एक-एक इन्द्रिय पर विजय पाने के लिए, कुछ अंश में भी आप चाहो तो इन्द्रियों पर संयम पा सको, इसलिए कुछ उपाय-उपचार बताता हूँ। क्योंकि आज इस विषय को समाप्त करना है। श्रवणेन्द्रिय-विजय : ___ कान मिले हैं सुनने के लिए | जीवन-व्यवहार में सुनने की क्रिया महत्त्वपूर्ण होती है। बधिरता जीवन-व्यवहार में बाधक बनती है। धार्मिक क्षेत्र में भी बधिरता अवरोधक बनती है। बस, विवेक इतना आवश्यक है कि क्या सुनना, क्या नहीं सुनना। सुनना तो कितना सुनना, कैसे सुनना।
० परनिन्दा कभी सुनो नहीं। ० स्वप्रशंसा सुनने से दूर रहो। ० गंदे और बीभत्स गीत मत सुनो। ० तीव्र राग-द्वेष बढ़ानेवाले समाचार सुनो नहीं। ० परिवार की बातें सुनते समय या सामाजिक बातें सुनते समय संसार
की असारता-निर्गुणता का खयाल जीवंत रखो।
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