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प्रवचन-६९
२२९ ये तीन अवस्थाएँ होती हैं तीर्थंकर परमात्मा की। छद्मस्थ अवस्था की अवान्तर तीन अवस्थाएँ होती हैं :
० बाल्य अवस्था, ० राज्य-अवस्था, ० श्रमण-अवस्था ।
अब मैं आपको एक-एक अवस्था का चिन्तन कैसे करना चाहिए, वह बताता हूँ।
छद्मस्थ-अवस्था :
छद्मस्थ-अवस्था में पहली है बाल्यावस्था । भगवंत का जन्मकाल स्मृति में लायें | जन्म होता है भगवान का और प्रकाश होता है तीनों लोक में! देवलोक के प्रमुख जो ६४ इन्द्र होते हैं वे बालस्वरूप भगवान को मेरु पर्वत पर ले जाते हैं। देवेन्द्रों को भी भगवान के प्रति कितनी अपार श्रद्धा होती है....भक्ति होती है? कैसा हार्दिक प्रेम होता है? मेरु पर्वत पर ले जाकर अपूर्व उल्लास से स्नान करवाते हैं। बाद में गाते हैं....नाचते हैं |
इस दृश्य को कल्पना की आँखों से देखकर चिन्तन करने का है कि : 'हे भगवंत, आपका कैसा अपूर्व पुण्योदय! आपका रूप अद्वितीय....आपकी शक्ति अद्वितीय....आपके गुण भी अद्वितीय | आप 'अवधिज्ञानी' होते हैं। आप बाल्यकाल में भी गुणगंभीर होते हैं। हे वीतराग, आपके सामने देवेन्द्र नाचते थे तो भी आपके मन में अहंकार पैदा नहीं हुआ, अपनी विभूति का गर्व नहीं हुआ....! चूंकि आप जब गर्भस्थ थे तभी से विरक्त थे! हे प्रभो! मुझे आपकी वह विरक्ति और स्वस्थता....बहुत आकर्षित करती है।
'हे परमगुरु, आपका जन्म राजपरिवार में हुआ था। विपुल राजवैभव आपको प्राप्त थे। आप पले भी वैभवों में | आप राजा भी बने....परन्तु आपका आत्मभाव अनासक्त रहा। आप निर्लेप रहे। पाँच इन्द्रियों का एक भी विषय आपको आकर्षित नहीं कर सका | सभी प्रकार के उत्तम वैषयिक सुख होते हुए भी और भोगते हुए भी आपकी आत्मा आकाश की तरह निर्लेप रही....! धन्य है आपकी निर्लेपता....! हे प्रभो, मुझे वैसी निर्लेपता देने की कृपा करें....।'
'हे पुरुषश्रेष्ठ, ज्यों संसारवास की अवधि पूर्ण हुई त्यों ही संसार का सहजता से त्याग कर दिया....। आप त्यागी अनगार बन गये। वैभव-संपत्ति और स्नेही-स्वजन....सभी का त्याग कर दिया। शरीर का ममत्व भी त्याग
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