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प्रवचन-६९
२२८ चाहते हो न अक्षयपद? आत्मा की परमविशुद्ध अवस्था ही अक्षयपद है। चूँकि आत्मा की परमविशुद्ध अवस्था प्रगट होने पर, वह अवस्था नष्ट नहीं होती है। जो नष्ट न हो कभी, वह अक्षय कहलाता है।
अक्षतपूजा करते समय, 'संसार से मेरा छुटकारा हो और सिद्धशिला पर मेरा शाश्वत् अवस्थान हो....' इसी भावना में मन को जोड़ने का है। इस भावना को विशेष पुष्ट करने के लिए, स्वस्तिक के ऊपर 'नैवेद्य' यानी किसी मिठाई को स्थापित किया जाता है। सातवीं पूजा है नैवेद्यपूजा :
स्वस्तिक है संसार का प्रतीक और नैवेद्य है संसार के बन्धन का प्रतीक । आहार....भोजन से ही तो संसार है। भोजन की आसक्ति कि जिसको 'आहारसंज्ञा' कहते हैं, वही संसार का बहुत बड़ा बन्धन है। उस बन्धन को तोड़ने के लिए नैवेद्यपूजा की जाती है। परमात्मा से प्रार्थना करने की है : 'हे करुणासिन्धु! मुझे अब आहारी नहीं रहना है, अणाहारी बनना है, इसलिए मैं आपको नैवेद्य चढ़ाता हूँ....मेरी आहार-संज्ञा तोड़ने की कृपा करें। मुझे अणाहारी होना है।' आठवी पूजा है फलपूजा : - पूजा करके कौन-सा फल चाहिए? परमात्मपूजा से कौन-सा श्रेष्ठ फल मिलता है? मोक्ष! इसलिए सिद्धशिला पर फल चढ़ाया जाता है। फल से 'मोक्षफल' की अभिलाषा व्यक्त होती है। फल मोक्षफल का प्रतीक है। __ अग्रपूजा पूर्ण होने पर पूजक का हृदय हर्ष से भर जाता है। हर्षविभोर हृदय....अपना हर्ष 'घंटनाद' करके अभिव्यक्त करता है। 'हर्ष' एक ऐसा भाव है कि वह अभिव्यक्ति चाहता ही है! मन्दिर में दूसरे माध्यमों से हर्ष की अभिव्यक्ति नहीं की जाती, इसलिए 'घंटनाद' किया जाता है । 'घंटनाद' एक निर्दोष क्रिया है। वातावरण को प्रफुल्लित करनेवाली क्रिया है।
इस प्रकार द्रव्यक्रिया पूर्ण कर, भावपूजा में प्रवेश करना है।
द्रव्यपूजा और भावपूजा के बीच एक बहुत ही रसपूर्ण क्रिया करने की होती है, वह है परमात्मा की तीन अवस्थाओं का चिन्तन।
१. छद्मस्थ-अवस्था, २. कैवल्य-अवस्था, ३. रूपातीत-अवस्था।
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