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प्रवचन-७०
२३५ ही। अथवा, जिनको सांस्कृतिक परम्परा मिली होगी अतिथि-सत्कार की, उनको भी भोजन के समय अतिथि की स्मृति आयेगी।
नयसार को वैसी अतिथि सत्कार की परंपरा मिली थी। भाग्य-योग से उसको जंगल में भी अतिथि मिल गये। वे एक महामुनि थे। रास्ता भूल गये थे, नयसार ने देख लिया। उनके पास गया और आदर से अपने पड़ाव पर ले आया । भक्तिभाव से भिक्षा दी। मुनिराज ने भोजन किया, विश्राम किया और वहाँ से आगे बढ़े। नयसार उनको रास्ता बताने के लिए साथ चला | मुनिराज ने नयसार को तब नवकार मंत्र दिया और धर्मबोध दिया । नयसार की आत्मचेतना जाग्रत हुई। उस समय नयसार कहाँ जानता था कि वह स्वयं असंख्य वर्षों के बाद करोड़ों जीवों की आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करनेवाले तीर्थंकर महावीर होनेवाले हैं। अतिथि-सत्कार कैसे? :
अतिथि सत्कार करने में औचित्य का पालन करना चाहिए। औचित्यपालन तभी हो सकेगा जब अतिथि की पहचान होगी। किस समय, किस प्रकार अतिथि की सेवा करनी चाहिए, उसको कहते हैं औचित्य | दीनजनों की सेवा में भी औचित्य का बोध अनिवार्य है। यों तो जीवन के तमाम कार्यों में औचित्य-पालन करने का होता है। मनुष्य कितना भी गुणवान् हो, परन्तु औचित्यबोध नहीं हो तो उसकी गुणसमृद्धि कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती है। कुछ उदाहरण से यह बात समझाता हूँ :
१. अतिथि को कोई शारीरिक व्याधि है, आपको उचित औषध प्रदान करना चाहिए और अनुपान देना चाहिए। जिस भोजन से व्याधि बढ़ती हो वह भोजन नहीं देना चाहिए, चाहे वह भोजन कितना भी उत्तम क्यों न हो।
२. अतिथि जब अपने ज्ञान-ध्यान में लीन हो तब विक्षेप नहीं करना चाहिए | उनके ज्ञान-ध्यान में सहायक बनना चाहिए |
३. अतिथि को ठहरने के लिए ऐसा स्थान देना चाहिए कि उनकी आराधना में विक्षेप न हो। ४. अतिथि के साथ विनय से, नम्रता से बात करनी चाहिए।
यह है औचित्य | औचित्य के विचार में देश, काल, व्यक्ति, अवस्था वगैरह का चिन्तन होना चाहिए। अतिथि का गौरव बना रहे और आप लोगों के सद्भाव की वृद्धि होती रहे-यह लक्ष होना चाहिए।
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