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प्रवचन-७०
२४० होती है? माँगने पर भी मौत नहीं आयेगी और जीवन बेसहारा.....दर्दभरपूर जीना पड़ेगा। सेवा कैसे करोगे?
दीनजनों की सेवा, धिक्कार से या तिरस्कार से नहीं करने की है। उसके मन को उल्लसित बनाते हुए, जीने का साहस बंधाते हुए सेवा करने की है। आप उन पर कोई एहसान कर रहे हो, वैसा भी उनको महसूस नहीं होने देना चाहिए।
सेवा कैसे करनी चाहिए, उसकी भी शिक्षा लेनी चाहिए। कुछ ऐसी संस्थाएँ हैं, जहाँ पर सेवा करने की सही शिक्षा दी जाती है। अपने जैन-समाज में ऐसी कोई संस्था नहीं है, ऐसा मेरा ख्याल है। चूंकि आप लोगों को वंशपरंपरागत सेवा करने की शिक्षा मिलती आयी होगी? वास्तव में शिक्षा दी जाती नहीं है, ली जाती है। कोई जरूरी नहीं कि माता दीनजनों की सेवा करनेवाली हो, उसके पुत्र-पुत्री सेवा करनेवाले ही हों। वे तो ऐसा भी कह सकते हैं : 'मम्मी बेकार की यह सेवा-बेवा की आफत मोल ले रही है। ऐसे अशक्तों को तो अस्पताल में भेज देना चाहिए | बहुत दया आती हो तो खर्च के रूपये दे देने चाहिए....।'
ऐसे भावशून्य....दयाशून्य बच्चों को कहाँ अनुभव होता है दीन-हीन की सेवा से मिलनेवाले भीतरी आनन्द का?
दीनजनों की सेवा करने में जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी बिता दी है, ऐसे सत्पुरुषों से जाकर पूछो तो सही कि सेवा करने का आनन्द कैसा होता है। दीनजनों के हृदय के कैसे आशीर्वाद प्राप्त होते हैं....। वे किस प्रकार सेवा करते हैं.... जाकर अपनी आँखों से देखो।
जापान का उदाहरण : __ अभी-अभी मैंने जापान की एक सत्य घटना पढ़ी.... पढ़ते पढ़ते मेरी आँखें हर्षाश्रु से छलक गईं। टोक्यो के योयोगी स्टेशन के पास दो रेस्तोराँ हैं। रेस्तोंराँ के मालिक हैं 'हयाशी' और उनकी पत्नी। इन रेस्तोरों में एक प्रकार का कर्मचारियों का ही राज्य है। कर्मचारी ही रेस्तोरा खोलते हैं, कर्मचारी ही रेस्तोराँ बंद करते हैं। कुछ कर्मचारी दिनभर कोई काम नहीं करते.... बस, गाते रहते हैं.... हयाशी उनको कुछ नहीं कहते। हयाशी तो कहते हैं : ये लोग कम से कम प्रसन्नचित्त होकर गीत तो गाया करते हैं। मुझे इस बात की खुशी है |
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