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प्रवचन-६४
१६९ कोई तर्क-कुतर्क नहीं किया। निश्चित जवाब दे दिया : 'मेरी माँ, मैं कल प्रातः ही चला जाऊँगा जैनाचार्य के पास ।' __ सारी रात आर्यरक्षित को नींद नहीं आयी....वे रातभर सोचते रहे 'दृष्टिवाद' के विषय में, जैनाचार्य के विषय में और अपनी माता के विषय में | जैनाचार्य तोसलीपुत्र के विषय में माता के कहे हुए शब्द उनकी स्मृति में उभर आये....
जैनषयो महासत्त्वाः त्यक्ताब्रह्मपरिग्रहाः। परमार्थस्थितस्वान्ता: सज्ज्ञानकुलभूमयः ।। अस्य ग्रन्थस्य वेत्तारतेऽधुना स्वेक्षवाटके।
सन्ति तोसलीपुत्राख्याः सूरयो ज्ञानभूमयः ।। आर्यरक्षित की मनोभूमि पर तोसलीपुत्र आचार्य की भव्य मूर्ति उपस्थित हुई। सत्त्वसभर देहाकृति, ब्रह्मचर्य का दिव्य तेज। आँखों में परमार्थ की भावना....। वाणी में ज्ञान-श्रद्धा का अमृत....। ऐसे महर्षि मुझे 'दृष्टिवाद' का अध्ययन करायेंगे | धन्य बन जाऊँगा।
आर्यरक्षित मात्र गुणवान् नहीं थे, किंतु गुणानुरागी भी थे। गुणपक्षपाती थे। माता ने जैनाचार्य के गुणों की प्रशंसा की, आर्यरक्षित सुनकर प्रसन्न हो गये। सारी रात शुभ विचारों में व्यतीत हो गई। प्रातः अरूणोदय होते ही, माता के चरणों में प्रणाम कर, माता के आशीर्वाद लेकर आर्यरक्षित इक्षुवाटिका की ओर चल पड़े। रास्ते में आर्यरक्षित के पिता के मित्र-ब्राह्मण मिल गये। उनके हाथ में इक्षु के साढ़े नव सांठे थे। उन्होंने आर्यरक्षित को देखा, स्नेहालिंगन किया और कहा : 'वत्स, शीघ्र घर पर लौटना।' आर्यरक्षित ने कहा : 'माता के आदेश से जाता हूँ, कार्य पूर्ण होते ही वापस लौट जाऊँगा।' रास्ते में आर्यरक्षित सोचते हैं :
अध्याया वा परिच्छेदा नव सार्द्धा मया ध्रुवम् ।
अस्य ग्रन्थस्य लप्स्यन्ते नालिकं निश्चितं हृदः ।। मुझे बहुत अच्छे शुकन हुए हैं। माता ने जिस 'दृष्टिवाद' का अध्ययन करने को कहा है उस दृष्टिवाद के जो अध्याय अथवा परिच्छेद होंगे, मैं साढ़े नौ ही पढ़ पाऊँगा, ज्यादा नहीं।
शुकन भविष्य के प्रति निर्देश करते हैं। भविष्य में जो होने का होता है
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