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प्रवचन-६७ आपको शान्ति मिलेगी ही। आप दूसरों को सुख दोगे तो आपको सुख मिलेगा ही। परन्तु आप दूसरों को दुःख दोगे तो आपको सुख नहीं मिलेगा। आप दूसरों को अशान्ति दोगे तो आपको शान्ति नहीं मिलेगी।
सभा में से : अनजान में दूसरों के प्रति उद्वेगजनक प्रवृत्ति हो जाय तो?
महाराजश्री : तो, बाद में खयाल आने पर क्षमा माँगनी चाहिए। दूसरों का उद्वेग दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर भी दूसरों का उद्वेग दूर नहीं होता हो, तो आप दोषित नहीं हैं। वैर की गाँठे मत बाँधो : ___ बार-बार दूसरों को अशान्त करने से, पीड़ा देने से, परेशान करने से दूसरों के हृदय में आपके प्रति द्वेष दृढ़ होगा। वैर की गाँठ बंध जायेगी। वह वैर की गाँठ जन्म-जन्म आपको दुःख देती रहेगी।
काया से भी दूसरों को परेशान मत करो, अशान्त मत करो। राजा गुणसेन जब राजकुमार थे तब राजपुरोहित के पुत्र अग्निशर्मा को कितना परेशान किया था? जानते हो न 'समरादित्य केवली चरित्र' को? अग्निशर्मा बेचारा कुरूप था, उसका शरीर कूबड़ा था। गुणसेन उसको गधे पर बिठाता था, उसके गले में काँटे का हार पहनाता था, घोर उपहास करता था....| अग्निशर्मा बेचारा त्रास सहन न कर सका, नगर छोड़कर जंगल में भाग गया....| परन्तु उसके हृदय में वैर की गाँठ तो बंध ही गई थी। आगे जाकर वह गाँठ दृढ़ हो गई थी। जन्म-जन्म तक वह अग्निशर्मा का जीव, गुणसेन के जीव का हत्यारा बना!
इसीलिए ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि किसी भी जीव को काया से, शरीर से दुःखी मत करो। परेशान मत करो। आप दूसरों को परेशान नहीं करोगे तो आप स्वयं परेशान नहीं होंगे। यदि, आप दूसरों को परेशान नहीं करते हैं, फिर भी दूसरे आपको परेशान करते हैं, तो समझना कि पूर्वजन्म के अपराध की आपको सजा हो रही है। आप प्रतिकार कर सकते हैं, परन्तु हृदय में दुर्भावना रखे बिना।
सत्रहवाँ सामान्य धर्म का इतना विवेचन पर्याप्त होगा | मन-वचन-काया से दूसरों को उद्वेग नहीं हो, अशान्ति नहीं हो, वैसी प्रवृत्ति करने में जाग्रत रहें।
आज बस, इतना ही।
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