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प्रवचन- ६८
आश्रितों को धर्मपुरुषार्थ में भी जोड़ें :
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इन प्राथमिक एवं बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ-साथ उन लोगों को उचित धर्मपुरुषार्थ में जोड़ना चाहिए। जिसके लिए जो धर्मक्रिया उचित हो, उस धर्मक्रिया में जोड़ना चाहिए । धर्मक्रिया में अभिरुचि पैदा करनी चाहिए। प्रसंग-प्रसंग पर उनको प्रेरणा देनी चाहिए । परिवार के मुख्य व्यक्ति का इस विषय में लक्ष्य होना चाहिए | कौन-कौन - सा धर्मपुरुषार्थ करना है, यह खयाल होना चाहिए ।
जब लड़के-लड़कियाँ युवावस्था प्राप्त करें तब उनका विशेषरूप से विचार करना चाहिए। उनकी कामवासना प्रबल न बन जाय और वे गलत रास्ते पर भटक नहीं जायें, इसलिए उचित उपाय करने चाहिए।
गंभीरता से सोचें इन बातों को :
पत्नी के विषय में पति को और पति के विषय में पत्नी को भी सोचना चाहिए। कामपुरुषार्थ के विषय में गंभीरता से सोचना चाहिए । अन्यथा दो में से एक या दोनों गलत काम कर सकते हैं। पत्नी से यदि पति को संतोष प्राप्त नहीं होता है तो पति वेश्यागामी अथवा परस्त्रीगामी बन सकता है । वैसे, यदि पत्नी को पति से संतोष प्राप्त नहीं होता है तो पत्नी परपुरुष के प्रति आकर्षित हो सकती है। इस प्रकार दोनों के जीवन में घोर पाप प्रविष्ट हो जाता है।
दुराचार - व्यभिचार को पाप मानते हो न ? घोर पाप मानते हो न? तो परिवार की जीवनपद्धति ही ऐसी बना लो कि परिवार में वह पाप प्रवेश ही न कर पाये। घर में एक भी युवा स्त्री या लड़की हो, तो कोई युवा नौकर घर में मत रखो। घर में यदि एक भी युवा पुरुष या लड़का हो तो कोई युवा नौकरानी घर में मत रखो। हो सके इतनी सावधानी बरतनी चाहिए। कामविषयक वृत्ति सभी में होती हैं, उस वृत्ति पर संयम रखना होता है। संयम नहीं कर सकें तो सुयोग्य निश्चित पात्र के साथ ही उस उत्तेजना को शान्त करने की होती है।
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अब रहा अर्थपुरुषार्थ। घर में जो व्यक्ति अर्थोपार्जन करने में समर्थ हो, उसको अर्थोपार्जन के लिए प्रेरित करना चाहिए। हाँ, महिलाओं को अर्थोपार्जन के कार्य में नहीं जोड़ें। 'अर्थपुरुषार्थ' में कुछ तो क्रूरता आ ही जाती है। स्त्री में क्रूरता नहीं होनी चाहिए । स्त्री तो करुणा और कोमलता के फूलों की फुलवारी होनी चाहिए। स्त्री की मुख्य जिम्मेदारी घर की सुख-सुविधा की होती है। बच्चों के लालन-पालन की होती है । भोजन-व्यवस्था की होती है।