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प्रवचन- ६६
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बरसाया। तोसलीपुत्र बहुत वृद्ध हो गये थे। उन्होंने भी श्रुतोपयोग से अपना शेष आयुष्य जान लिया था। उन्होंने वात्सल्यपूर्ण शब्दों में कहा :
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‘वत्स, मैं तुझे आचार्यपद पर स्थापित करना चाहता हूँ। मेरा आयुष्य अल्प है। जिनशासन का तू महान् प्रभावक और संघाधार होनेवाला है।'
श्री आर्यरक्षित को गुरुदेव ने आचार्यपद प्रदान किया । अपना उत्तराधिकारी बनाया। आर्यरक्षित ने गुरुदेव को माता का आदेश कह सुनाया। गुरुदेव ने
कहा :
'तेरे जाने से परिवार का आत्मकल्याण होगा। तुझे जाना चाहिए, परन्तु अब तू मुझे नहीं मिल सकेगा।' गुरु-शिष्य ने परस्पर क्षमापना कर ली । गुरुदेव की आज्ञा लेकर आर्यरक्षितसूरिजी दशपुर की ओर चल पड़े ।
श्री आर्यरक्षित को कुछ पूर्वों का ज्ञान तोसलीपुत्र ने दिया था, कुछ पूर्वों का ज्ञान श्री भद्रगुप्ताचार्य ने दिया था ओर दशवें आधे पूर्व का ज्ञान श्री वज्रस्वामी ने दिया था। इस प्रकार दृष्टिवाद का बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त कर वे माता के पास जा रहे थे । 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत १४ पूर्वों का समावेश है । आर्यरक्षित ने साढ़े नौ पूर्वों का ज्ञान सम्पादन किया था । उस काल में १० पूर्वों से ज्यादा ज्ञान किसी महापुरुष के पास नहीं था ।
जब अन्य मुनिवृन्द के साथ आर्यरक्षितसूरि फल्गुरक्षित मुनि सहित दशपुर के बाह्य प्रदेश में पहुँचे, फल्गुरक्षित ने कहा 'गुरुदेव, मैं पहले नगर में जाकर माता को शुभ समाचार देना चाहता हूँ.... चूँकि उनका संदेश लेकर मैं ही आपके पास आया था, इसलिए मुझे ही पहले शुभ समाचार देना चाहिए ।' फल्गुरक्षित मुनि त्वरा से नगर में पहुँचे । अपने घर पर गये । माता रुद्रसोमा से कहा :
'वर्द्धये वर्द्धये मातर! गुरुस्तत्सुत आगमत् !”
'हे माता, मैं आपको शुभ समाचार देता हूँ। मेरे गुरु आ गये हैं।'
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और आपके पुत्र यहाँ
रुद्रसोमा रोमांचित हो गई ! फल्गुरक्षित की बलैयाँ लीं। आँखों में हर्ष के आँसू भर आये। गद्गद् स्वर में पूछा :
'कहाँ है वह मेरा लाड़ला ?'
‘मैं यहाँ हूँ माँ!' आर्यरक्षितसूरि ने उसी समय गृह में प्रवेश किया ।