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प्रवचन-६६
१९६ होंगे? मेरा कहना तो यह है कि जब वे छोटे होते हैं, किशोरावस्था में होते हैं, तब से आप ध्यान देते रहें। आपकी बात छोटे बच्चे और किशोर तो मानते हैं न? उनको अच्छे मित्र बताते रहो। ___ हालाँकि जिन विद्यालयों में-महाविद्यालयों में लड़के-लड़कियाँ पढ़ने जाते हैं वहाँ का वातावरण ही दूषित है। व्यसन-फैशन और अनुकरण....! वहाँ मित्र, अच्छे मित्र मिलने दुर्लभ होते हैं। अनेक बुराइयाँ 'फैशन' के नाम पर वहाँ खुल्लंखुल्ला चलती हैं। 'चरित्र' जैसी कोई बात वहाँ देखने को मिलती नहीं है। ऐसी स्कूल-कॉलेजों में आप अपनी संतानों को भेजते हैं....फिर वे मातृपूजक-पितृपूजक कैसे बनेंगे? माता-पिता के पूजन की 'ब्ल्यू प्रिन्ट' : ___ माता-पिता के प्रति उनके कर्तव्य समझाने पर भी उनके दिमाग में वे बातें अँचती नहीं हैं। चूंकि उनका पालन ही विपरीत परिस्थिति में हुआ है। मातापिता ने अपनी महत्ता खो दी हो, वैसा लगता है।
फिर भी, जिन संतानों को सुसंस्कार मिले हैं और मातृपूजक एवं पितृपूजक बनना है, उनको निम्न प्रकार कर्तव्यों का पालन करना चाहिए :
१. आन्तरिक प्रीति के साथ पादप्रक्षालन । २. वृद्ध माता-पिता को समय पर भोजन देना, वस्त्र देना, शय्या देना,
स्नान कराना वगैरह। ३. सेवा स्वयं करना, नौकरों से नहीं करवाना। ४. उनके वचनों को-आदेशों को आदर से ग्रहण करना। ५. सभी कार्यों में उनसे पूछना, पूछकर कार्य करना। ६. माता-पिता के सभी धार्मिक मनोरथों को यथाशक्ति पूर्ण करना। जैसे प्रभुपूजा, तीर्थयात्रा, धर्मश्रवण, सात क्षेत्रों में अर्थव्यय ।
आर्हत धर्म की आराधना में माता-पिता को जोड़ना और सहायक बननाइसके अलावा अत्यंत दुष्प्रतिकार्य ऐसे माता-पिता के उपकारों का बदला चुकाया जा नहीं सकता। इसलिए वयोवृद्ध माता-पिता को बड़े आदर से - बहुमान से धर्म-आराधना में जोड़ने का प्रयत्न करें।
सभा में से : हम माता-पिता को धर्म-आराधना करने को कहें, फिर भी वे नहीं करें और संसार के प्रपंचों में ही डूबे रहें तो हम क्या करें?
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