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प्रवचन-६७
१९८ • तुम अशांत हो तो उसका कारण स्वयं तुम हो! तुम दूसरों
को अशांत बनाते होगे! तुम औरों के लिए बुरा-अहितकारी सोच रहे होगे! जो दूसरों की प्रगति नहीं सहन कर पाते हैं, औरों की प्रशंसा नहीं सुन पाते हैं, वैसे लोग दूसरों के उद्धेग और खेद में से निमित्त बनते ही रहते हैं। तुम्हारे साथ अन्याय करनेवाले का भी बुरा मत सोचो। तुम्हारा नुकसान करनेवाले पर भी गुस्सा मत करो। दुःख के समय में दीन-हीन कल्पनाएँ कर-करके दिमाग को
खराब मत करो। • कभी अनिवार्य संजोगों में उग्र या ऊँची आवाज में कुछ बातें साफ
साफ कहनी भी पड़ें.... तो कहो जरुर, पर तुरन्त ही सामनेवाले
व्यक्ति के मानसिक उद्वेग को दूर करने का प्रयत्न करो। . कोई तुम्हें जानबूझकर हैरान कर रहा हो....उस समय भी न तो पर = चित्त का संतुलन गँवाना है, न ही द्वेष को पनपने देना है!
र प्रवचन : ६७
परम कृपानिधि, महान् श्रुतधर, आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्मों का प्रतिपादन करते हुए सत्रहवाँ सामान्य धर्म बताते हैं 'अनुद्वेगजनीया प्रवृत्ति ।' किसी जीवात्मा को उद्वेग न हो वैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए।
उद्वेग का अर्थ है अशान्ति, उद्वेग का अर्थ है संताप | मन से, वाणी से और काया से वैसी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। किसी आत्मा को संताप हो, अशान्ति हो वैसे विचार भी नहीं करने चाहिए। विचार से ही आचार का जन्म होता है। वृत्ति में से प्रवृत्ति पैदा होती है। इसलिए विचारों का परिवर्तन करना चाहिए, वृत्तियों का संशोधन करना चाहिए। जैसा बोओगे वैसा काटोगे :
लोग अपने परिवार के हों या दूसरे हों, किसी के लिए अहितकारी विचार नहीं करने चाहिए। यदि वैसे अहितकारी विचार मनुष्य करता है तो उसको कहीं पर भी समता-समाधि प्राप्त नहीं होगी। सभी प्रवृत्ति का समान फल
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