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प्रवचन-६७ रास्ते में उसने एक वृद्धा स्त्री को देखा। उसके सिर पर ईन्धन का बड़ा गट्ठर था। वह बेचारी वृद्धा अपने पुत्र को भोजन देकर, लकड़ी का गट्ठर उठाकर गाँव की ओर जा रही थी।
रुद्रक के मन में क्रूर विचार आ गये । 'इस वृद्धा को मार कर तैयार गट्ठर मैं ले लूँ, तो शीघ्र ही मैं घर पहुँच जाऊँगा।' उसने वृद्धा को मार डाला.... काष्ठभार ले लिया और दूसरे रास्ते से शीघ्र उपाध्याय के घर पहुँच गया । जाकर उपाध्याय से कहता है :
'गुरुजी! आपके प्रिय शिष्य की कहानी सुन लीजिए! वह मुझे अभी-अभी जंगल में मिला। बैठा होगा कहीं पर....खेलता रहा होगा मध्याह्न तक। जंगल में जाकर एक वृद्धा को मार डाला और उसके काष्ठ लेकर वह आ रहा होगा! देखो, वह आ रहा....!'
रुद्रक ने बात पूर्ण की और अंगर्षि ने काष्ठभार के साथ घर में प्रवेश किया। उपाध्याय तो रुद्रक की बात को सत्य मान कर अत्यन्त रोषायमान हो गये थे। ज्योंही अंगर्षि ने घर में प्रवेश किया....उपाध्याय बरस पड़े : 'हे पापी, तेरा मुँह भी मैं देखना नहीं चाहता....चला जा यहाँ से....! मैंने तुझे अच्छा, सुशील और दयालु छात्र माना था पर तू तो हत्यारा निकला....।' घोर भर्त्सना की अंगर्षि की । उसको निकाल दिया अपने घर से। ___ परन्तु यह तो अंगर्षि था! शान्त समुद्र जैसा सौम्य था । उपाध्याय के प्रति तनिक भी रोष नहीं किया। नगर से दूर एक वृक्ष की छाया में जाकर बैठा। सोचने लगा : अंगर्षि का आत्मनिरीक्षण :
'आज यह क्या हो गया? चन्द्र में से आगवर्षा हुई? मेरे इन उपाध्याय के मुख में से कभी भी ऐसे परुष....कठोर वचन मैंने नहीं सुने हैं | उपाध्याय तो श्रेष्ठ प्रियभाषी हैं। ऐसा क्यों हुआ? ऐसा मेरा कौन-सा बड़ा अपराध हुआ? मेरे अपराध के बिना तो उपाध्याय मेरे प्रति इतने रोषायमान हो नहीं सकते!' ___ अंगर्षि ने अपने अपराध को ढूँढ़ा! परन्तु कोई अपराध नजर नहीं आया। वह सोचने लगा : 'मुझे मेरा ऐसा कोई दुष्कृत्य याद नहीं आ रहा....| तो भी धिक्कार हो मुझे....कि मैं गुरुदेव को उद्वेग करानेवाला बना । मेरे निमित्त आज उनको कितना क्लेश हुआ? वे धन्य शिष्य हैं कि जो गुरु के चित्त में प्रीति पैदा करते हैं। जो दूसरों को समता-समाधि प्रदान करते हैं।'
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