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प्रवचन-६७
२०४ देवों ने प्रकट होकर श्रमणवेष समर्पित किया। महोत्सव मनाया और आकाशवाणी कर लोगों को सत्य समझाया : 'हे नगरवासी लोगो, महापापी रुद्रक ने ही वत्सपाल की माता की हत्या की है। उसने ही महात्मा अंगर्षि पर गलत आरोप मढ़ा है, इसलिए उस पापी का मुँह देखना भी पाप है, उससे बात करना भी पाप है। हम देवलोक के देव यह घोषणा करते हैं। महात्मा अंगर्षि को केवलज्ञान प्रकट हुआ है। वे सर्वज्ञ-वीतराग बने हैं। वे इसी भव में मोक्ष पायेंगे।' उपाध्याय का घोर पश्चात्ताप :
देवों की घोषणा उपाध्याय ने भी सुनी । उपाध्याय पहले तो स्तब्ध हो गये। अपनी भयानक भूल ख्याल में आ गई। हृदय पश्चात्ताप के दावानल से जलने लगा। वे रो पड़े....फूट-फूटकर रोने लगे। मैं ज्ञानी नहीं हूँ....अज्ञानी हूँ....घोर अज्ञानी हूँ। मैं अविचारी हूँ। मैंने कुछ नहीं सोचा, रुद्रक की बात मान ली और महात्मा अंगर्षि पर बरस पड़ा, रोष किया, उसका तिरस्कार किया, घर से निकाल दिया....मैंने घोर पाप किया....। मैं संसारसागर में डूब जाऊँगा। मैं जाऊँ उन महात्मा के पास....जाकर क्षमायाचना करूँ....वे मुझे क्षमा दे देंगे....|
उपाध्याय नगरजनों के साथ महर्षि अंगर्षि के पास पहुँचे। चरणों में वंदना की। गद्गद् स्वर में क्षमायाचना की। केवलज्ञानी अंगर्षि ने सम्यकदर्शन-ज्ञानचारित्र्यरूप मोक्षमार्ग का उपदेश दिया। सरल और भद्रपरिणामी उपाध्याय ने ज्ञानप्रकाश पाया....उनकी आत्मा निर्मल बनी।
उधर नगर में लोगों ने रुद्रक की घोर भर्त्सना की। सभी जगह रुद्रक की निन्दा होने लगी। रुद्रक ने भी देववाणी सुनी थी। उसके हृदय में भी घोर पश्चात्ताप हुआ। 'मैं अधम हूँ....अधमाधम हूँ, घोर पापी हूँ। मुझे नर्क की सजा होनी चाहिए | मैं नगर के मध्यभाग में खड़ा रहूँ और नगर के लोग मुझे पत्थर मारते रहें....| नहीं....नहीं, मैं उस महात्मा अंगर्षि के पास जाऊँ....उनसे क्षमायाचना करूँ....। वे अब तो सर्वज्ञ-वीतराग बन गये हैं। पहले भी वीतराग जैसे ही थे....कितने प्रशान्त थे! कितने सरल....सदाचारी और सहनशील थे।' रुद्रक को भी केवलज्ञान :
रुद्रक सर्वज्ञ अंगर्षि के पास गया। उनके चरणों में गिर पड़ा पुनः पुनः क्षमायाचना की। अंगर्षि ने उसको मोक्षमार्ग बताया। वहाँ खड़ा-खड़ा रुद्रक समताभाव में स्थिर बना । अनन्त-अनन्त कर्मों की निर्जरा होती रही। शुक्लध्यान
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