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प्रवचन-६६
१८९ अध्ययन नहीं कर सकेगा। यह जायेगा यहाँ से और पुनः लौटकर मुझे मिल भी नहीं सकेगा। मेरा आयुष्य भी अब अल्प शेष है।' उन्होंने आँखें खोली, आर्यरक्षित के सामने देखा और बोले :
'वत्स, गच्छ त्वं, मिथ्यादुष्कृतमस्तु ते।' 'हे वत्स, तू जा सकता है, मेरा तुझे 'मिच्छामि दुक्कडं है।' आर्यरक्षित की आँखें भर आई। उन्होंने वज्रस्वामी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया । रो पड़े वे | गुरुदेव को 'मिच्छामि दुक्कडं' दिया, आशीर्वाद लिया और फल्गुरक्षित के साथ उन्होंने दशपुर की ओर विहार कर दिया। जिनशासन की कितनी सुन्दर आचारसंहिता है!
वज्रस्वामी जैसे महान् आचार्य.... जब शिष्य जा रहा है, शिष्य को 'मिच्छामि दुक्कडं' देते हैं! क्षमायाचना करते हैं! अध्यापन कराने में कभी शिष्य को उपालंभ देना पड़ता है, कभी दो कटु शब्द भी कहने पड़ते हैं, शिष्य के मन को दुःख होता है....अब, जब वह जा रहा है तो क्षमायाचना करते हैं! कैसी नम्रता? कैसी लघुता? वास्तविकता जानने से राग-द्वेष कम होते हैं : __ श्री आर्यरक्षित तीन-तीन बार पूछने गये – 'अब अध्ययन कितना शेष है.... तो वज्रस्वामी नाराज नहीं हुए, आक्रोश नहीं किया....परंतु ज्ञानोपयोग देकर आर्यरक्षित का भविष्य देखा! अपने को आये हुए स्वप्न को याद किया....! 'यह अब ज्यादा पढ़ नहीं सकता....' ऐसा निर्णय किया।
कुछ ऐसा विचार आया होगा कि 'अभी वह जाता है जाने दूँ, पुनः लौटकर आयेगा या नहीं? उस समय मेरा जीवन होगा या नहीं?' उन्होंने श्रुतबल से अपना आयुष्य देखा! शेष आयुष्य कम ही था! उन्होंने आशा छोड़ दी आर्यरक्षित को पुनः आगे अध्ययन कराने की। समत्व धारण किया और आर्यरक्षित को हार्दिक आशीर्वाद देकर विदा दी। वास्तविकता को जान लेने पर राग-द्वेष नहीं होते। सच्चे कार्यकारण-भाव को जान लेने पर समत्व की आराधना सरल बन जाती है।
श्री आर्यरक्षित सीधे दशपुर नहीं गये। अपने गुरुदेव श्री तोसलीपुत्र आचार्य को वंदन करने पाटलीपुत्र गये। श्री तोसलीपुत्र उस समय पाटलीपुत्र में बिराजमान थे। पाटलीपुत्र पहुँचे। गुरुदेव के चरणों में मस्तक रख दिया। गुरुदेव ने वात्सल्य
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