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प्रवचन-६६
१९२ पिता...भाई और शत्रु भी बनता है! संबंधों की ऐसी विषमता है....तो फिर क्यों स्वजनमोह रखना?
हे तात, संपत्ति का गर्व भी करने जैसा नहीं है। राजा की कृपा से, उसके भृत्य-नौकर बनकर प्राप्त किए हुए धन पर गर्व कैसा? ऐसे धन पर श्रद्धा कैसी? अर्थ तो अनर्थ का हेतु है! अर्थ अनेक उपद्रवों का हेतु है। संपत्ति चंचल है। कर्मों का खेल है। क्षणपूर्व जो रंक होता है वह क्षण के बाद राजा बनता है और क्षणपूर्व जो राजा होता है वह क्षण के बाद रंक बन जाता है! इसलिए संपत्ति के भरोसे नहीं रहना चाहिए। आप तो विद्वान् हैं, विचक्षण ब्राह्मण हैं। इस जगत् को मिथ्या जानते हैं....सत्य एक मात्र आत्मा है । आत्मा के अलावा सारा जगत् मिथ्या है। अर्थ और कामपुरुषार्थ में ही जीवन पूरा करोगे क्या? ___ 'हे उपकारी, इस मानवजीवन का मूल्य आप समझते हैं। अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ में ही इस मानवजीवन को पूरा करना है क्या? शास्त्राध्ययन भी आपने अर्थप्राप्ति के लिए किया न? शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त कर आत्मकल्याण का पुरुषार्थ करना चाहिए, जिससे मानवजीवन सफल बन जाय । मृत्यु के बाद आत्मा सद्गति को प्राप्त करे | मात्र गृहस्थावास में ही जीवन बिता देने से तो आत्मा का अहित होता है। और, आप तो वानप्रस्थाश्रम स्वीकारने की भावना रखते हैं, संसार के कार्यों से निवृत्त होना चाहते हैं....तो फिर आप ऐसा साधुजीवन क्यों नहीं लेते? क्यों सर्वसंग का त्याग करके श्रमण नहीं बनते?
आप प्रज्ञावंत हैं, शास्त्रज्ञ हैं, मेरी बात पर गंभीरता से सोचें। विनाशी विषयसुखों के लिए अविनाशी आत्मा को भूलने की भूल नहीं करें। क्षणिक सुखों के मोह में शाश्वत् आत्मा के उद्धार का पुरुषार्थ नहीं चूकें । आप अपने मन को मोहवासना से मुक्त करें। निर्मल मन से इन बातों पर चिन्तन करें। __आपने मुझे गृहस्थाश्रम में लौटने की बात कही, यह संभवित नहीं है। जिन वैषयिक भोगसुखों का मैंने त्याग कर दिया है, उन वैषयिक सुखों के प्रति मेरी जरा भी इच्छा नहीं है....तनिक भी राग नहीं है। मुझे यह श्रमण जीवन प्यारा हैं, मैं इस जीवन में संतुष्ट हूँ। मुझे इसी जीवनचर्या में शान्ति मिलती है। ___ मैं यहाँ मात्र आपसे या मेरी उपकारिणी माता से मिलने नहीं आया हूँ। मैं आप सभी को मोक्षमार्ग देने आया हूँ। 'दृष्टिवाद' का अध्ययन अधूरा छोड़कर आया हूँ। मैं यहाँ कैसे रह सकता हूँ? आपने ही कहा था कि 'सत्पुरुष
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