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प्रवचन-६४
१७२ ___ 'वत्स, दृष्टिवाद पढ़ने के लिए तेरी भद्रमूर्ति माता ने तुझे यहाँ भेजा, इससे मुझे खुशी हुई, परन्तु 'दृष्टिवाद' जैनदीक्षा ग्रहण करनेवालों को ही पढ़ाया जा सकता है। इस विधि का पालन करना चाहिए न? 'विधिः सर्वत्र सुन्दरः ।' ___ आर्यरिक्षत ने तुरंत ही कहा : 'गुरूदेव, जैनेन्द्र संस्कारों से आप मुझे अलंकृत करें, मैं जैनदीक्षा स्वीकार करूँगा। मुझे दृष्टिवाद पढ़कर, मेरी माता को प्रसन्न करना है। परन्तु मेरी एक प्रार्थना है : ___ 'इस नगर के लोगों का मेरे प्रति बड़ा राग है, राजा को भी मेरे प्रति राग है.... उनको जब ज्ञात होगा कि आर्यरक्षित ने जैनदीक्षा ले ली है, तो संभव है कि वे दीक्षा का त्याग करवा दें, आपको भी उपद्रव कर सकते हैं....अबुधअज्ञानी जीवों का ममत्व दुष्परिहार्य होता है। इसलिए, मुझे दीक्षा देकर दूसरे राज्य में विहार कर देना उचित लगता है। जिनशासन की लघुता नहीं होनी चाहिए।'
आचार्यदेव ने आर्यरक्षित को भागवती-दीक्षा प्रदान की और तुरंत ही वहाँ से विहार कर दिया।
आचार्यदेव ने दीक्षा देने से पूर्व आर्यरक्षित के विषय में जो सोचा, आज के संदर्भ में वह सब अत्यंत विचार करने योग्य है और, आर्यरक्षित ने जो आचार्यदेव को प्रार्थना की, वह भी काफी महत्त्वपूर्ण है। अपने संक्षेप में थोड़ा परामर्श आज कर लें।
० कुलीनता :
आचार्यदेव ने आर्यरक्षित में कुलीनता देखी। जिसको जैन-परंपरा की दीक्षा लेनी है, वह कुलीन होना चाहिए | कुलीन व्यक्ति पापाचरण करते डरता है। उसको शर्म आती है। दुःख आने पर भी वह स्वीकृत व्रतों का त्याग नहीं करता है। कुलीन व्यक्ति जैसे संसार में मातृभक्त और पितृभक्त होता है वैसे साधुजीवन में वह गुरुभक्त और परमात्मभक्त होता है। साधु कुलीन व्यक्ति होना चाहिए।
० आस्तिकता :
आचार्यदेव ने आर्यरक्षित में आस्तिकता का दर्शन किया। धर्म के प्रति, परमात्मा के प्रति, गुरु के प्रति, मोक्ष के प्रति, मोक्षमार्ग के प्रति श्रद्धा, आस्तिकता कहलाती है। आत्मा के अस्तित्व की श्रद्धा तो मूलभूत आस्तिकता है। यदि आत्मा का अस्तित्व ही न मानें, तो धर्म, गुरु और परमात्मा की श्रद्धा
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