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प्रवचन- ६५
१७९
'पशुसृष्टि में स्तनपान तक माता होती है, अधम पुरुष के लिए तब तक माता होती है जब तक पत्नी घर में नहीं आती है । मध्यम पुरुषों के लिए तब तक माता होती है जब तक माँ घर का काम करती है और उत्तम पुरुषों के लिए जीवनपर्यंत माता होती है.... और वे माता की तीर्थरूप में सेवा करते हैं।'
अब आप सोच लेना कि आप कौन-सी कक्षा में हैं। अधम, मध्यम या उत्तम? सोचकर उत्तम कक्षा में पहुँचने का प्रयत्न करोगे न ? माता के उपकार कभी मत भूलना। कैसी भी हो माता .... अनपढ़ हो, गुस्सा भी करती हो, कभी कोई भूल भी करती हो..... फिर भी माता तो माता ही रहेगी । उसने नौ महीने तक अपने उदर में बच्चें का पालन किया है, यह उपकार भी इतना बड़ा है कि जिसका मूल्य हो ही नहीं सकता ।
उपकारी के उपकारों को नहीं भूलना यह कृतज्ञता - गुण है । धर्मपथ पर चलनेवालों में यह गुण होना अति आवश्यक है । उत्तम आत्माओं में यह गुण होता ही है। सहजतया होता है । आर्यरक्षित में यह गुण स्वाभाविक रूप से था। माता-पिता के उपकारों को वे अपने जीवन में कभी नहीं भूले । माता-पिता के प्रति उनका सद्भाव आजीवन बना रहा । पिता ने पढ़ने के लिए पाटलीपुत्र भेजा तो वे पाटलीपुत्र चले गये और माता ने 'दृष्टिवाद' पढ़ने के लिए जैनाचार्य के पास भेजा तो वे जैनाचार्य तोसलीपुत्र के पास चले गये। कितनी नम्रता होगी? कितनी सरलता होगी ? अपने वैषयिक सुखों का सहजता से त्याग कर दिया न? दीक्षा ले ली, माता की आज्ञा का पालन करने के लिए।
आर्यरक्षित मुनि अपने साध्वाचारों के पालन में निपुण बने । गुरु- बहुमान और गुरुभक्ति से उनमें ज्ञानावरण- कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम हुआ । गुरुदेव ने आर्यरक्षित को क्रमशः शास्त्राध्ययन कराते हुए, अपने पास जितने पूर्वों का ज्ञान था, उनको दे दिया।
उस काल में दश पूर्वों का ज्ञान दो महापुरूषों के पास था। एक थे श्री भद्रगुप्ताचार्यजी और दूसरे थे श्री वज्रस्वामी । श्री वज्रस्वामी ने दश पूर्वों का ज्ञान श्री भद्रगुप्ताचार्यजी से ही प्राप्त किया था । आचार्यश्री तोसलीपुत्र ने आर्यरक्षित को श्री भद्रगुप्ताचार्यजी के पास भेजा। उस समय भद्रगुप्ताचार्यजी उज्जयिनी नगरी में बिराजमान थे। अति वृद्धावस्था में थे ।
गीतार्थ साधुपुरुषों के साथ आर्यरक्षित मुनि उज्जयिनी पहुँचे । उपाश्रय में पहुँचे। श्री भद्रगुप्ताचार्यजी को वंदना की, भद्रगुप्ताचार्यजी ने खड़े होकर
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