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प्रवचन-६५
१८१ ने सोचा : 'आज ही कोई प्राज्ञ अतिथि मेरे पास आना चाहिए। वह अतिथि मेरा संपूर्ण ज्ञान प्राप्त करेगा, परन्तु कुछ शेष रहेगा।'
वज्रस्वामी सोच ही रहे थे कि आर्यरक्षित मुनि उपाश्रय में प्रविष्ट हुए | 'नीसिही' बोलकर उन्होंने प्रवेश किया और वज्रस्वामी के पास आकर 'मत्थएण वंदामि' कह कर वंदना की। वज्रस्वामी इस अपूर्व अतिथि को देखकर खड़े हो गये और आर्यरक्षित का स्वागत किया। दोनों ने अपूर्व आनन्द की अनुभूति की, वंदना कर, श्री वज्रस्वामी के चरणों में बैठकर उन्होंने निवेदन किया : 'मेरे गुरुदेव श्री तोसलीपुत्र आचार्य हैं। उनकी आज्ञा से मैं पूज्य स्वर्गस्थ आचार्य श्री भद्रगुप्ताचार्यजी के चरणों में गया था। मुझे उस महापुरुष के आशीर्वाद मिले और उनकी आज्ञा के अनुसार मैं आपके पास शेष दसवें पूर्व का ज्ञान प्राप्त करने आया हूँ। आप इस काल के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी पुरुष हैं | युगप्रधान हैं। कृपा के सागर हैं। क्या आप मेरे पर कृपा करके दसवें पूर्व का अध्ययन करवायेंगे?' ___ आर्यरक्षित के मधुर एवं विनययुक्त वचन सुनकर श्री वज्रस्वामी प्रसन्न हुए | उन्होंने कहा :
'हे वत्स, तुझे देखते ही मुझे अपूर्व आनन्द हुआ है। तू प्रज्ञावंत और विनयशील है | मैं तुझे अवश्य दसवें पूर्व का अध्ययन कराऊँगा | तू पूरी लगन से अध्ययन करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।' __ आर्यरक्षित मुनि गद्गद् हो गये। उन्होंने अध्ययन शुरू कर दिया। श्री वज्रस्वामी ने पूर्ण वात्सल्य से अध्ययन कराना शुरू किया। अपना पूर्वो का अपूर्व ज्ञान लेनेवाला सुपात्र प्रज्ञावंत शिष्य हो, ज्ञानसंपत् प्राप्त करने की तमन्ना हो, उसको ज्ञान देने में ज्ञानदाता समर्थ गुरु को क्यों खुशी न हो?
अध्ययन में कई दिन, कई महीने और कुछ वर्ष बीतते हैं। ज्ञान-ध्यान में, लाखों वर्ष का जीवन व्यतीत हो जाय....तो भी पता नहीं लगता है।
इधर उज्जयिनी नगरी में श्री आर्यरक्षित दृष्टिवाद के अध्ययन में लीन बने हैं....उधर दशपुर में आर्यरक्षित की माता रुद्रसोमा पुत्रविरह से व्याकुल बनती जा रही है! रुद्रसोमा ने ही आर्यरक्षित को 'दृष्टिवाद' पढ़ने भेजा है! परन्तु है तो माता का हृदय न? गुणवान, बुद्धिमान, शीलवान और विनयवान पुत्र कौनसी माता को याद न आये? फिर भी रुद्रसोमा पुत्रदर्शन हेतु उज्जयिनी नहीं गई हैं। 'मेरे जाने से उसकी ज्ञानोपासना में विक्षेप होगा.... | दृष्टिवाद पढ़ने
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