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प्रवचन-६५ प्रति स्नेह का बन्धन नहीं होता है। परन्तु फिर भी, साधु के हृदय में वात्सल्य और करुणा तो होनी ही चाहिए! वात्सल्य मोह नहीं है! करुणा मोह नहीं है!
साधु बनने के बाद भी उपकारी माता-पिता के उपकारों को भूलने का नहीं है। माता-पिता के उपकारों का बदला चुकाने की भावना पुत्र-साधु के हृदय में होनी ही चाहिए। इसलिए तो रुद्रसोमा ने भगवान महावीर का दृष्टान्त दिया! तीर्थंकर जैसे तीर्थंकर भी मातृभक्ति करते हैं तो दूसरों की बात ही क्या करने की? साधु-साध्वी के हृदय वात्सल्य से परिपूर्ण होने ही चाहिए। करुणा से भरपूर होने चाहिए। । दूसरी बात तो दिल और दिमाग को चकरा दे वैसी कह दी है रूद्रसोमा ने! जो मार्ग, जो चारित्रमार्ग पुत्र ने लिया.... वह मार्ग स्वयं लेने की भावना प्रदर्शित कर दी! कैसा अद्भुत पुत्रप्रेम! 'पुत्र को जो मार्ग प्रिय.... वह मार्ग मुझे भी प्रिय!' इतना ही नहीं, अपने पति को, पुत्री को और छोटे पुत्र को भी उसी मोक्षमार्ग पर ले चलने की बात कह दी रुद्रसोमा ने!
आर्यरक्षित के जाने के बाद, रुद्रसोमा ने अपने पति-पुरोहित के जीवन में कुछ परिवर्तन देखा होगा! पुत्र-पुत्री के जीवन में भी चारित्र-धर्म को पाने की योग्यता देखी होगी! सारे परिवार का आर्यरक्षित के प्रति उच्चतम भाव देखा होगा! तभी तो ऐसा सन्देश भेज सकी न? यह कोई झूठा आश्वासन नहीं था! पुत्र को बुलाने का कोई लालच नहीं था।
आजकल तो आप लोग ऐसी बात साधुओं को ललचाने के लिए भी करते हो न? महाराज साहब, आप हमारे गाँव में पधारें, चातुर्मास करें....तो हम दीक्षा लेने की सोचें। चातुर्मास पूर्ण होने के बाद दीक्षा के लिए तैयार हो जाये न? __ रुद्रसोमा की पूर्ण तैयारी थी चारित्रधर्म ग्रहण करने की। 'कब, आर्यरक्षित यहाँ आये और मैं संसारवास का त्याग कर दूं।' इस बात की जल्दी थी रुद्रसोमा को।
तीसरी बात कही उपकार की! साधु निःसंग....निःस्नेही हो जाय, आत्मभाव में रमणता करनेवाला हो जाय....तो भी उपकारभाव तो रहना ही चाहिए | 'मुझ पर उपकार करने के लिए भी एक बार यहाँ आ जा!'
तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी ने एक अश्व को प्रतिबोध करने के लिए रात्रि में विहार किया था! उपकार की प्रवृत्ति सभी को करने की है। साधु जो मनवचन-काया से अहिंसा धर्म का पालन करता है, वह भी उपकार ही है। जहाँ
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