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प्रवचन-६५ के बाद स्वयं मेरे पास आयेगा!' हृदय की भावना पर कर्तव्य-बुद्धि की विजय हुई थी। परन्तु फिर भी हृदय में विकल्प तो पैदा होते ही हैं! पुत्रस्नेह तो था ही! स्नेह विकल्प तो करवायेगा ही! कभी अच्छे....तो कभी बुरे! प्रिय पुत्र का विरह माता को बेचैन बना रहा है। वह सोचती है : 'कैसा वह मेरे हृदय को आनन्दित करनेवाला पुत्र है! कितना बुद्धिमान् है! कैसा उसका शान्त-शीतल स्वभाव है | उसको मैंने अपने से दूर भेज दिया? मैं कैसी अबोध माँ हूँ? प्रकाश की आशा थी....परन्तु पुत्रविरह की वेदना का अंधकार उतर आया। मुझसे अब उसके विरह का दुःख सहा नहीं जाता है....। मैं जानती हूँ कि वह श्रमण बन गया है। अच्छा है....वह भले श्रमण जीवन का पालन करे परन्तु मैं उसका मुँह देखना चाहती हूँ| उसको यहाँ बुलाना चाहिए। मैं बुलाऊँगी तो वह अवश्य आयेगा। उसने कभी भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया है। उसके हृदय में मातृभक्ति का सागर भरा पड़ा है। मैं बुलावा भेजूं? किसको भेजूं? फल्गुरक्षित को भेजूं....चूँकि आर्यरक्षित के हृदय में अपने छोटे भाई के प्रति वात्सल्य है। ठीक है, उसके पिताजी की अनुमति ले लूँ....। परन्तु क्या वे अनुमति देंगे? चूंकि मैंने उनको पूछे बिना ही भेजा है आर्यरक्षित को । हाँ, फिर भी मुझे उन्होंने एक अक्षर का भी उपालंभ नहीं दिया है। वे गंभीर हैं, मेरे प्रति उनका प्रेम है, श्रद्धा है। वे यह बात तो मानते हैं कि मैंने आर्यरक्षित को गलत रास्ते पर तो नहीं भेजा है। उनकी अनुमति लेकर ही फल्गुरक्षित को भेजूं....।'
रुद्रसोमा ने सोमदेव पुरोहित के पास जाकर विनय से पूछा : 'आपकी अनुमति हो तो मैं फल्गुरक्षित को आर्यरक्षित के पास भेजूं | वह आर्यरक्षित को मेरा संदेश देगा....आर्यरक्षित को लेकर वह वापस लौटेगा।'
सोमदेव पुरोहित विद्वान थे परन्तु सरल थे। उन्होंने कहा : 'तू जो करेगी वह मुझे मंजूर है। तुझे जो अच्छा लगे वह कर।'
रुद्रसोमा ने कैसे अपना घरसंसार चलाया होगा? सोमदेव में विद्वत्ता और सरलता का कैसा सुभग संयोग होगा? गुणों की दृढ़ भूमिका पर किसी भी धर्म का पालन होता हो, वैर-विरोध या संघर्ष नहीं हो सकता। मौलिक गुणों की सुदृढ़ भूमिका होनी चाहिए | रुद्रसोमा के परिवार में यह भूमिका सुदृढ़ थी। ___ सभा में से : आर्यरक्षित का बुलाने की बजाय रुद्रसोमा स्वयं उनके पास चली जाती तो अच्छा नहीं था?
महाराजश्री : रुद्रसोमा के नहीं जाने के अनेक कारण हो सकते हैं। उस काल में महिलाएँ प्रायः बाहर नहीं जाती थीं। दूसरी बात, वह राजपुरोहित की
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