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प्रवचन-६४
१६७ माताओं को रुद्रसोमा बनना होगा। कैसी वह प्रियभाषिणी थी! कैसी वह मितभाषिणी होगी? कैसी वह वात्सल्य की सरिता होगी? क्या आज की माताएँ वैसी नहीं बन सकतीं? जो तपश्चर्या कर सकती हैं, जो दान दे सकती हैं, जो परमात्मा की पूजा-सेवा कर सकती हैं और जो धर्मोपदेश सुनती रहती हैं, क्या वह प्रियभाषिणी और मितभाषिणी नहीं बन सकतीं? क्या वह सहनशीला नहीं बन सकतीं? क्या वह गंभीर नहीं बन सकतीं?
रुद्रसोमा का कैसा निराला व्यक्तित्व होगा? घर जाकर सोचा है न? फुरसत के क्षणों में सोचते हो न? जो बात पसन्द आ जाती है उसके विचार आते ही हैं! मुझे तो रुद्रसोमा के विषय में बहुत विचार आते हैं। रुद्रसोमा एक आदर्श श्राविका थी-गृहिणी थी इतना ही नहीं, वह अनासक्त योगिनी भी थी। रहती थी संसार में परन्तु उसका हृदय अनासक्त था, विरक्त था । यदि उसका हृदय विरक्त-अनासक्त नहीं होता तो वह अपने पंडित-विनीत पुत्र को 'दृष्टिवाद' पढ़ने कि लिए नहीं भेजती! वह जानती थी कि संयमी बने बिना, साधु बने बिना दृष्टिवाद का अध्ययन नहीं हो सकता है। दृष्टिवाद के अध्ययन के लिए भेजना यानी साधु बनने के लिए भेजना! अपने सुविनीत प्रज्ञावंत पुत्र को साधु बनाने की भावना कैसी माता में हो सकती है? वह माता विरक्त-अनासक्त ही होती है। विरक्त माता त्याग में सुख देखती है :
विरक्त माता वैषयिक भोगों में दुःखदर्शन करती है, त्याग में सुखदर्शन करती है। विरक्त माता स्वयं त्याग की कामना करती है, संतानों के लिए भी त्याग का मार्ग पसन्द करती है | बच्चों को बाल्यकाल से ही वैसे त्याग-वैराग्य के संस्कारों से सुसंस्कृत करती रहती है। चूंकि विरक्त माता का हृदय मैत्रीभाव से भरापूरा होता है। वह माता जिस प्रकार संतानों की सुख-सुविधा का ख्याल करती है वैसे आत्महित की भी चिन्ता करती है। परिवार के वर्तमान जीवन को सुख-शान्तिपूर्ण बनाने का प्रयत्न करती है वैसे पारलौकिक जीवन को भी सुखमय बनाने का यथाशक्य प्रयत्न करती है। परन्तु यह प्रयत्न दुराग्रहरूप नहीं होना चाहिए। यह प्रयत्न कठोर नहीं होना चाहिए।
यह भूल आज कई माताएँ कर रही हैं। हालाँकि ये माताएँ परिवार का पारलौकिक हित करना चाहती हैं, आत्मकल्याण करना चाहती हैं और इसलिए प्रेरणा देती रहती हैं। परन्तु उस प्रेरणा में आक्रोश होता है। भाषा
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