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प्रवचन-६४
१६५ H. माताओं को रुद्रसोमा होना होगा। वह कितनी प्रियभाषिणी'
और मितभाषिणी थी? वह कितनी वात्सल्यमयी थी? आज की माताएँ क्या ऐसी नहीं हो सकतीं??? .विरक्त माता वैषयिक भोगसुख में दुःख देखती है। त्याग में उसे सुख दिखता है। विरक्त माता स्वयं-खुद त्याग की भावना में जीती है और संतानों के लिए भी त्याग का राह पसंद करती है। माता-पिता और धर्मगुरु यदि सौम्य होंगे, प्रियभाषी होंगे, तो संतानों के दिल में उनके लिए स्नेह और सद्भाव जरूर
पैदा होगा....बढ़ेगा। .शुकन भविष्य का इशारा करते हैं, भविष्य को बदलते नहीं हैं,
भविष्य में जो कुछ बनना है, होना है.... उसका संदेशा देते हैं। जो स्नेही-स्वजन अबोध होते हैं, अज्ञानी होते हैं.... उनका ममत्व प्रगाढ़ होता है, उनकी ममता जल्दी दूर नहीं होती। कभी-कभी तो ममत्व द्वेष में तबदील हो जाता है!
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प्रवचन : ६४
महान् श्रुतधर, पूज्य आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी, स्वरचित 'धर्मबिन्दु' ग्रन्थ में, सर्वप्रथम गृहस्थ जीवन का सामान्य धर्म बता रहे हैं। सोलहवाँ सामान्य धर्म बताया है माता-पिता की पूजा | पूजा यानी प्रणाम करना, हार्दिक अहोभाव से प्रणाम करना! वह भी दिन में एक समय ही नहीं, तीन समय करने का है। प्रातः, मध्याह्न और संध्या के समय प्रणाम करने का है। ___ माता और पिता के साथ साथ कलाचार्य, वृद्धजन, धर्मोपदेश देनेवाले गुरुजन वगैरह को भी प्रणाम करने का होता है। माता-पिता के स्नेही-संबंधी भी पूज्य बताये गये हैं। ये सभी गुरुवर्ग में आते हैं। इन गुरुजनों का मुख्यतया पाँच प्रकार से बहुमान करने का होता है :
१. वे आयें तब खड़े होकर सामने जाना। २. उनकी कुशलपृच्छा करना। ३. उनके पास स्थिरता से बैठना। ४. अयोग्य स्थान पर उनका नाम नहीं लेना।
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