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प्रवचन-६४
१६४ आपको अपना व्यक्तित्व ऐसा बनाना पड़ेगा, उज्ज्वल व्यक्तित्व! गुणगंभीर व्यक्तित्व! दूसरों पर ऐसे व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ेगा ही। रुद्रसोमा ने अपना वैसा व्यक्तित्व बनाया था। विद्वान और प्रज्ञावंत पुत्र उस व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ। वह सोचने लगा : 'माता ने कहा 'दृष्टिवाद' पढ़ना चाहिए! दृष्टिवाद! कितना प्यारा नाम है! दृष्टि का वाद । बस, माँ की इच्छा पूर्ण करूँगा ही। यदि मैं माँ की इच्छा पूर्ण नहीं करता हूँ तो मेरा जीवन व्यर्थ है....। कुछ भी करना पड़े....मैं करूँगा.... परन्तु दृष्टिवाद पदूंगा अवश्य!' 'मातृदेवो भव' आर्यसंस्कृति का मूल मंत्र :
आर्यरक्षित युवक था। यौवनसुलभ वृत्तियाँ क्या उसके मन में जगी नहीं होंगी? जगी होंगी, परन्तु वह युग इन्द्रियसंयम का था। अध्ययनकाल में संपूर्ण ब्रह्मचर्यपालन अनिवार्य था। ब्रह्मचर्यपालन के लिए सुयोग्य वातावरण दिया जाता था। रहन-सहन और समग्र दिनचर्या वैसी होती थी कि इन्द्रियाँ चंचल ही न बनें। शिक्षा भी वैसी दी जाती थी कि कलाओं के साथ-साथ युवक की आध्यात्मिक चेतना का भी विकास हो। इससे, युवक भी सहजता से इन्द्रियसंयम कर सकते थे। आदर्शों के पालन के लिए अपने सुखभोगों का त्याग कर सकते थे।
'मातृदेवो भव' यह इस देश की संस्कृति का मूल मंत्र था। इस देश में वैसी माताएँ हुई हैं और वैसी संतानें भी हुई हैं.... जिन्होंने इस आदर्श को चरितार्थ किया है। परन्तु कलियुग का प्रभाव कहें अथवा जीवों की अपात्रता कहें.... आज यह आदर्श नहीं रहा....| रुद्रसोमा जैसी माताएँ कितनी मिलेंगी? आर्यरक्षित जैसे पुत्र कितने मिलेंगे? नहीं रहा माताओं का गौरव, न रहा पिताओं का गौरव | संतानें स्वच्छंदता की ओर दौड़ रही हैं। राज्य और शिक्षा इस स्वच्छंदता को बढ़ावा दे रहे हैं....| संस्कृति सर्वनाश के कगार पर खड़ी है....फिर भी अपने पास आशा की एक किरण है....वह है वीतराग का शासन! शासन को समझें....विशाल अर्थ में समझें, अनेकान्त दृष्टि से समझें!
आज बस, इतना ही।
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