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प्रवचन-५७ म. आत्मशुद्धि की साधना में अशुद्ध व्यवहार बाधक बनता है।
जिनका जीवन-व्यवहार अशुद्ध होता है उनकी धर्मआराधना निर्मल, निश्चल और आनंदसभर नहीं हो सकती! रुपये कमाने में यदि ज्ञानदृष्टि हो तो वह 'धर्म' बन जाता है। व्यवहार में जितनी शुद्धि उतना धर्म! व्यवहार में जितना जिनाज्ञापालन उतना धर्म!
आय के अनुसार खर्च करना रखो। 'इन्कम' के अनुसार खर्च करो। कमाई कम हो तो खर्चे भी कम कम कर दो। खर्च की मात्रा कमाई के अनुपात से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। जितनी 'इन्कम' हो उसके चार हिस्से करो। एक हिस्से को स्थायी संपत्ति में जोड़ो। एक हिस्सा तुम्हारे धंधे में लगाओ। एक हिस्सा कुटुंब के निर्वाह के लिए और एक हिस्सा धर्मकार्य के लिए अलग रखो....'सेपरेट' रखा करो।
प्रवचन : ५७
परम उपकारी, महान् श्रुतधर, पूज्य आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी ने स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ में क्रमिक मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया है। जिस किसी व्यक्ति को क्रमशः विकास की दिशा में आगे बढ़ना है, उसके लिये यह ग्रन्थ अद्भुत मार्गदर्शक बन सकता है। जिस किसी को अपने जीवन-व्यवहार को समुचित और विशुद्ध बनाना है, उसके लिये भी यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी बन सकता है। और, न जिसको आत्म-कल्याण करना है और न जिसको जीवन-व्यवहार को विशुद्ध बनाना है, उसके लिये तो यह ग्रन्थ क्या, कोई भी ग्रन्थ हो, कोई भी शास्त्र हो, कोई भी पुस्तक हो, कुछ भी महत्त्व नहीं रखते हैं। जीवन में अच्छी आदतें आवश्यक हैं : ___ सुनते-सुनते कभी चोट लग जाये, सुनते सुनते कभी आध्यात्मिक भीतरी केन्द्र खुल जाये और सुनते-सुनते कभी वैराग्यभाव जाग्रत हो जाये, यह दूसरी बात है। 'मुझे आध्यात्मिक ऊर्जा जाग्रत करनी है, मुझे मेरे जीवन-व्यवहारों को विशुद्ध बनाना है, मुझे क्रमिक मोक्षमार्ग की आराधना करना है, इस भावना से सुनना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। आप लोग इस उद्देश्य से सुनने आते
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