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प्रवचन-६३
१५९ महाराजश्री : नाराज होंगे तो वे आदरणीय-पूजनीय नहीं बनेंगे। संतानों का सुख देखकर माता-पिता को नाराज नहीं होना चाहिए! हाँ, एक बात है! माता-पिता यदि आत्मदृष्टिवाले हों तो चिन्ता हो सकती है कि - 'यदि ये संतान सुख-भोग में लीन बनेगी और आत्मा को भूल जायेंगी तो परलोक में इनका क्या होगा? सुखों में डूबना नहीं चाहिए!' आप लोगों को ऐसी चिन्ता होती है न? ___ सभा में से : नहीं, नहीं! ऐसी चिन्ता हो तब तो फिर भी अच्छा है! उनको तो चिन्ता इस बात की होती है कि 'यह लड़का अब अपना नहीं रहा, बहू का हो गया....अब वह अपने माता-पिता को भूल गया, बहू भी घर का काम कम करती है....वगैरह चिन्ता होती है।
महाराजश्री : इसलिए तो माता-पिता ने अपनी पूजनीयता खो दी है। परिवार में वे प्रिय नहीं रहे। आपस की विश्वसनीयता भी नहीं रही है। सास पुत्रवधू से अपने वस्त्र, अपने अलंकारों को छुपाती है, पुत्रवधू अपनी सास से अपने रुपये, वस्त्र, अलंकार वगैरह छुपाती है। पिता पुत्र से अपने रुपये छुपाता है तो पुत्र अपना 'प्राइवेट बैंक-एकाउन्ट' खुलवाता है।
भद्रामाता ने शालिभद्र को रत्नकंबल क्यों नहीं दी? इस प्रश्न का उत्तर भी सुन लो : अपना जिस व्यक्ति के प्रति प्रेम होता है, उस व्यक्ति को कोई उत्तम वस्तु मिल जाती है तो अपन को खुशी होती है, वह वस्तु अपन को नहीं मिली हो, तो भी दुःख नहीं होता है! शालिभद्र की बात यह थी! भद्रामाता ने ऐसा ही सोचा होगा कि 'मेरी पुत्रवधुओं को रत्नकंबल देने से शालिभद्र को खुशी होगी....उसको नहीं दूंगी तो भी वह प्रसन्नचित्त ही रहेगा। मेरा पुत्र उदार और विशाल हृदय का है।' प्रेम प्राप्त करने के लिए चाहिए निःस्पृहता एवं उदारता :
भद्रामाता ने स्वयं के लिए रत्नकंबल का एक टुकड़ा भी नहीं लिया....सब टुकड़े पुत्रवधुओं को दे दिये! यह थी उनकी निःस्पृहता और उदारता! निःस्पृह और उदार भद्रामाता ने पुत्र और पुत्रवधुओं का कैसा प्यार संपादन किया होगा? आप लोगों को भी पुत्रों का एवं पुत्रवधुओं का प्यार चाहिए न? कैसे मिलेगा?
निःस्पृहता और उदारता के साथ-साथ चाहिए संतानों के आत्महित की चिन्ता। हाँ, संतानों के आत्महित की चिन्ता करनी ही चाहिए। आर्यरक्षित की माता रुद्रसोमा जैसे गंभीर, उदार और ज्ञानदृष्टिवाली थी वैसे संतानों का
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