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प्रवचन- ६०
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राजकीय भय इत्यादि जो आज काफी बढ़ गये हैं, उसका मूलभूत कारण क्या है? इन सामान्य धर्मों की घोर उपेक्षा! इन सामान्य धर्मों का घोर उपहास !
सामान्य धर्मों का इसीलिए विस्तार से विवेचन कर रहा हूँ । आप लोग इन सामान्य धर्मों का महत्त्व समझें और आपके जीवन में इन धर्मों का पालन करने के लिए तत्पर बनें। आज एक महत्त्वपूर्ण सामान्य धर्म पर विवेचन करूँगा, वह धर्म है 'अवर्णवाद का त्याग' । यह चौदहवाँ सामान्य धर्म है।
अवर्णवाद की पैदाइश है द्वेषबुद्धि में से :
ग्रन्थकार आचार्यदेव अवर्णवाद का सर्वथा निषेध करते हैं। किसी भी मनुष्य का अवर्णवाद नहीं करना है । अवर्णवाद का अर्थ है दूसरे का अप्रसिद्ध दोष प्रसिद्ध करना, प्रगट करना । 'अप्रसिद्ध - प्रख्यापनरूपः अवर्णवादः' । अवर्णवाद की आदत का त्याग करना है। यह आदत बहुत बुरी है, नुकसान करनेवाली है। सभी दृष्टि से नुकसान करनेवाली है। किसी भी दृष्टि से अवर्णवाद करने योग्य नहीं है ।
अवर्णवाद होता है द्वेषबुद्धि से । किसी का चरित्रहनन करने के इरादे से, किसी को नीचा गिराने की अधमवृत्ति से या अपने दोषों को ढाँपने की इच्छा से अवर्णवाद होता है ।
सभा में से: जिसमें जो दोष नहीं हो वह दोष बताना और जो दोष हो वह दोष बताना - दोनों अवर्णवाद होता है क्या ?
महाराजश्री : हाँ, दोनों अवर्णवाद है। जो दोष नहीं है, वह दोष दूसरे पर थोपना-आरोप लगाना तो भयानक अवर्णवाद है । दोष है, परन्तु कोई जानता नहीं है, आप ही जानते हो, वह दोष प्रकाशित करना भी अवर्णवाद है। प्रसिद्ध दोष का प्रचार करना भी एक प्रकार का अवर्णवाद है ।
क्या मिलता है अवर्णवाद करने से ? क्या अवर्णवाद करके आपने किसी को नीचा गिराया? मिथ्या कल्पना है आपकी कि 'उसका दोष जाहिर कर के उसके व्यक्तित्व को नष्ट कर दूँ।' आप किसी दूसरे के व्यक्तित्व को नष्ट नहीं कर सकते, जब तक उस व्यक्ति के पापकर्म उदय में नहीं आये ! उस व्यक्ति के पापकर्म उदय में आयेंगे तब स्वतः उसका व्यक्तित्व नष्ट होगा! अवर्णवाद करने से तो आपका व्यक्तित्व बिगड़ता है। मित्रता के नाते अवर्णवाद सुनने वाले लोग ही बाद में कहते फिरते हैं कि 'उस भाई को निन्दा करने की आदत पड़ गई है.... ..... जब सुनो तब किसी की निन्दा ही सुन लो !' इसलिए, पहली बात तो यह
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