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प्रवचन-६१
१३३ 5.पन्द्रहवाँ सामान्य धर्म है : असदाचारी आदमी की संगसोहबत
नहीं करना और सदाचारियों की सोहबत करना। दोषक्षय
और गुणवृद्धि - ये दो आदर्श तुम्हारे जीवन में होंगे तो ही तुम इस पन्द्रहवें सामान्य धर्म के महत्व को समझ पाओगे! आत्मविशुद्धि तभी संभव हो सकती है जब कि दोषों का नाश हो और गुणों की वृद्धि हो। जो अभक्ष्य खाते हों उनका संसर्ग-संपर्क नहीं रखना। सद्गुरु के पास अभक्ष्यत्याग की प्रतिज्ञा ले लेनी चाहिए। अभक्ष्य भोजन की प्रशंसा या दलीलें नहीं सुनना। अभक्ष्य भोजन जहाँ होता हो वहाँ गलती से भी जाना नहीं! आज तो दुराचारी लोग सदाचारियों का मजाक उड़ाते हैं। सदाचारों
की निंदा करते हैं। दुराचारों की प्रशंसा होने लगती है! • दुराचारों का सेवन करना आज 'फैशन' हो चुका है। क्या
जमाना आया है? . 'धर्मी पाये दुःख-दुविधा, सुख-सुविधा मिले शैतान को,
कहना क्या भगवान को?'
HITENAMEDIAS
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प्रवचन : ६१
महान् श्रुतधर आचार्यदेव श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी स्वरचित 'धर्मबिंदु' ग्रन्थ के प्रारम्भ में गृहस्थ जीवन के सामान्य धर्म बताते हैं। ये सामान्य धर्म व्यक्ति को, समाज को, परिवार को और राष्ट्र को स्पर्श करते हैं। स्वस्थ, शान्त और सुखी जीवन के लिए इन सामान्य धर्मों का पालन करना नितान्त आवश्यक है। पापविचार और पापाचारों से बचने के लिए इन सामान्य धर्मों का पालन अवश्य कर्तव्य है | पारलौकिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने के लिए इन धर्मों का पालन करना अनिवार्य है। मोक्षमार्ग की आराधना करने के लिए इन धर्मों का पालन करना अनिवार्य है। इन सामान्य धर्मों की कभी भी उपेक्षा मत करना । ऐसा कुतर्क भी मत करना कि - 'आजकल तो देशकाल ही बदल गया है, इन सामान्य धर्मों का पालन करना संभव ही नहीं है!'
यदि इन धर्मों के पालन की संभावना ही नहीं मानी, तब तो कभी भी इन
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