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प्रवचन-६२
१४९ और जानता था कि 'रुद्रसोमा की जैन-दर्शन में अविचल श्रद्धा है, इसलिए कभी भी ऐसी तत्त्वचर्चा नहीं करता था कि जिससे संघर्ष पैदा हो या मनमुटाव पैदा हो । यही तो थी सोमदेव की गंभीरता! पत्नी पर अपना अधिकार होते हुए भी उस पर वैदिक धर्म के पालन का दबाव नहीं डाला। जैन धर्म के पालन में हस्तक्षेप नहीं किया! रुद्रसोमा भी उतनी ही गंभीर थी, उसने कभी भी पति के दिल को दुःख हो वैसा व्यवहार नहीं किया।
सभा में से : पति को सम्यक्मार्ग पर ले आना पत्नी का धर्म नहीं है? महाराजश्री : दूसरे को सम्यक्धर्म प्रदान करने के लिए मनुष्य में दक्षता और दीर्घदृष्टि चाहिए। इसमें भी जहाँ निकट के संबंध हो वहाँ तो ज्यादा सावधानी चाहिए | जल्दबाजी करने में नुकसान होना संभव है | रुद्रसोमा ने सोमदेव की मानसिक स्थिति का अध्ययन किया होगा। उसके संयोगों का अध्ययन किया होगा....और कोई विशेष संयोग का इन्तजार करती होगी? उसके हृदय में यह भावना तो थी ही कि 'मेरे पति और मेरा परिवार जैन धर्म के प्रति श्रद्धावान बनें, परंतु हर भावना फलवती नहीं होती है न? होती भी है, विलंब हो सकता है! गंभीर बीमारी हो तो आरोग्य प्राप्त करने में विलंब होता है! पारिवारिक जीवन ऐसा चाहिए :
रुद्रसोमा ने सोचा होगा कि सोमदेव विद्वान और राजमान्य पंडित है, उनके साथ वाद-विवाद नहीं किया जा सकता। प्रियजनों को वाद-विवाद से जीते नहीं जा सकते। झगड़ा करके कभी धर्म-परिवर्तन नहीं कराया जा सकता है। इसलिए इस विषय में मौन धारण करना ही उसने अच्छा समझा होगा। हाँ, परिवार में गृहस्थोचित सामान्य धर्मों का पालन होता ही था। न्याय-नीति-सदाचार-विनय-नम्रता-गुणानुराग.... वगैरह धर्मों के पालन में चुस्तता थी।
रुद्रसोमा ने दो पुत्रों को जन्म दिया था। एक का नाम था आर्यरक्षित और दूसरे का नाम था फल्गुरक्षित। दोनों पुत्रों को माता-पिता ने अच्छे संस्कार दिये थे। सोमदेव और रूद्रसोमा ने आपस में सहमति लेकर, दोनों पुत्रों को वैदिक परंपरानुसार संस्कार दिये थे। सोमदेव के आग्रह को रूद्रसोमा ने स्वीकार कर लिया था। वह किसी भी प्रसंग में पति के साथ संघर्ष पसन्द नहीं करती थी। जबकि पति ने उसको अपनी मान्यतानुसार धर्माराधना करने की
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