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प्रवचन- ६०
१३१
सभा में से: नियमित प्रभुपूजा, सामायिक जैसी पवित्र धर्मक्रिया करनेवालों को तो अवर्णवाद जैसा पाप नहीं करना चाहिए न ?
महाराजश्री : यदि जिनपूजा वगैरह धर्मक्रिया करनेवाले अवर्णवाद जैसे पाप करते हैं तो समझना चाहिए कि उन्होंने धर्मतत्त्व पाया ही नहीं है । सामान्य धर्मों की उपेक्षा कर, . विशेष धर्म की आराधना करनेवाले लोग धर्मतत्त्व से अनभिज्ञ होते हैं। उनकी धर्मक्रियाएँ उनको अभिमानी - अहंकारी बनानेवाली बन जाती हैं। गुरुजनों का अवर्णवाद करनेवाले और सुननेवाले और सुनानेवाले
दोनों पापकर्म से बँधते हैं । अवर्णवाद रसपूर्वक सुनने से करनेवाले को प्रोत्साहन मिलता है। उसके मन में होता है कि 'मैं जो बोल रहा हूँ वह ठीक बोल रहा हूँ, मुझे ऐसे व्यक्ति के पाप प्रकट करने ही चाहिए ताकि दूसरे लोग उसकी मायाजाल में फँसे नहीं! यह विचारधारा मात्र भ्रमणा है । आत्मवंचना है । दूसरों को बचाने की बात मात्र बात ही है । वास्तविक बात है दूसरे को गिराने की वृत्ति ! दूसरे से बदला लेने की हीन भावना ।
परदोषदर्शन साधना में बाधक :
मैंने तो ऐसे साधु भी देखे हैं कि जो अपने गुरु के, अपने उपकारी के अवर्णवाद करते थे। आप लोगों को आश्चर्य होगा - साधु और अवर्णवाद ? हाँ, साधु का वेश पहनकर जो अपने आपको साधु कहलाते हैं, वे अवर्णवाद जैसे पाप क्यों नहीं करेंगे? अपने आपको ऊँचा दिखाने के लिए दूसरों को नीचा दिखाना- एक उपाय है ना? अवर्णवाद करनेवाला अपने आपको ऊँचा दिखाता है। अवर्णवाद करनेवाले को दुनिया के मूर्ख लोग अच्छा व्यक्ति मानते हैं । इसलिए तो अवर्णवाद करनेवालों को प्रोत्साहन मिलता है।
एक बात समझ लो कि परदोषदर्शन के बिना अवर्णवाद संभव नहीं होता । परदोषदर्शन मोक्षमार्ग की आराधना में तो बाधक है ही, जीवनयात्रा में भी बाधक बनता है। दूसरों के दोष देखने की आदत बहुत खराब आदत है । इससे मनुष्य अन्तर्मुख नहीं बन सकता और स्वात्मचिंतन नहीं कर सकता। दूसरों के दोष देखने में, बोलने में और सुनने में ही जीवन समाप्त हो जाता है।
देखना है तो गुण देखो :
दूसरों की ओर देखना है तो दूसरों के गुण देखो। प्रत्येक जीव में गुण होता ही है। गुण देखो, गुणानुवाद करो । गुण देखने से और गुणानुवाद करने
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