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प्रवचन-५७ उनको देखकर आप भी धर्मक्रियाएँ करते हो न? इससे ही तो अनेक अविधियों की परम्परा चल पड़ी है। व्यवहारशुद्धि ही प्रथम धर्म है :
आज मुझे धर्मक्षेत्र में, धर्मक्रियाओं में जो अविधियाँ चल रही हैं, उस विषय में बात नहीं करनी है, आज तो मैं आपके गृहस्थजीवन की एक विषम परंपरा की बात करूँगा। संसार में मनुष्य धन कमाता है, व्यय करने के लिए। धन कैसे कमाना चाहिए यह बात तो पहले ही बता दी है। कमाये हुए धन का व्यय कैसे करना चाहिए यह बात आज बताऊँगा। __आय और व्यय, संसार का महत्त्वपूर्ण व्यवहार है। जैसे न्याय और नीति से धनप्राप्ति करना विशुद्ध व्यवहार है, वैसे सुयोग्य मार्गों से व्यय करना विशुद्ध व्यवहार है। रुपये कमाना एक बात है, खर्च करना दूसरी बात है। रुपये कमाने में जिस प्रकार विशेष ज्ञानदृष्टि हो तो वह 'धर्म' बनता है वैसे रुपये खर्च करने की ज्ञानदृष्टि हो तो वह 'धर्म' बनता है। व्यवहार में जितनी विशुद्धि उतना धर्म! व्यवहार में जितना जिनाज्ञापालन उतना धर्म!
ग्रन्थकार आचार्यश्री खर्च करने में, धन का व्यय करने में विशेष दृष्टि प्रदान करते हैं। वे कहते हैं 'आय के अनुसार व्यय करो। कमाई के अनुसार खर्च करो। यदि कमाई कम है तो खर्च कम करो। कमाई के अनुपात से खर्च का अनुपात ज्यादा नहीं होना चाहिए। बहुत अच्छी बात बताते हैं आचार्यश्री! मुझे तो अच्छी लगती है यह बात | आप लोगों को अच्छी लगती है क्या? खर्च के अनुसार आय या आय के मुताबिक व्यय? ___ सभा में से : अच्छी तो लगती है, परन्तु हम लोग उलटा काम कर रहे हैं।
आय के अनुसार व्यय नहीं, व्यय के अनुसार आय। ___ महाराजश्री : चूँकि आय आपके हाथों में होगी। आप चाहें उतनी आय कर सकते होंगे? आप चाहें उतने रुपये कमा सकते हो न? __सभा में से : नहीं जी, हम चाहे उतने रुपये कमा सकते होते तो इस दुनिया में दरिद्रता ही नहीं होती। ___ महाराजश्री : तो फिर, व्यय के अनुसार आय का सिद्धान्त मानने का या आय के अनुसार व्यय का सिद्धान्त मानने का? आय आपके बस की बात नहीं है, व्यय आपके बस की बात है। आय भाग्याधीन है, व्यय पुरुषार्थ के अधीन है।
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