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प्रवचन-५७
९७ के लिए एवं अपने स्वयं के उपभोग के लिए रखें। अब एक उदाहरण से इस व्यवस्था को समझाता हूँ|
एक व्यक्ति की सालाना 'इन्कम' बारह हजार रुपये है। तीन-तीन हजार के चार भाग होंगे। तीन हजार रुपये अलग स्थायी संपत्ति में जोड़ देगा वह । तीन हजार रुपये अपने व्यवसाय में जोड़ देगा। तीन हजार रुपये कुटुम्बपरिवार के पालन में जोड़ेगा और तीन हजार रुपये धर्मकार्य में एवं स्वयं के भोगोपभोग में लगाएगा।
सभा में से : हमारे तो बारह हजार रुपये कुटुम्ब-परिवार के पालन में और स्वयं के व्यसनों में ही पूरे हो जाते हैं।
महाराजश्री : तो इन्कम पचास हजार की होगी आपकी! हाँ, जो सालाना पचास हजार रूपये कमाता है, वह कुटुम्ब-परिवार के लिये १२-१३ हजार रुपये खर्च कर सकता है। अथवा जो 'सर्विस' करते हैं और प्रति मास एक हजार रुपये कमाते हैं, उसको तीन भाग ही करने होंगे। अपना व्यवसाय तो उनको होता नहीं है, इसलिए व्यवसाय में कुछ भी जोड़ने का नहीं होता। इसलिए यदि वे लोग कुटुम्ब-परिवार के लिये छह हजार रुपये भी खर्च कर सकते हैं। तीन हजार की बचत तो करनी ही होगी और तीन हजार रुपये धर्मकार्यों में एवं अपने स्वयं के खर्च के लिए रखने होंगे।
कुछ अपेक्षाओं से सोचा जाय तो नीतिशास्त्र की यह व्यय-व्यवस्था अच्छी है। प्रतिवर्ष रुपयों की बचत होने से, जब घर में कोई शादी वगैरह का प्रसंग उपस्थित होता है तब खर्च की चिन्ता नहीं रहती है। बचत नहीं होती है तो विशेष प्रसंग उपस्थित होने पर चिन्ता का भार बढ़ जाता है। कुछ लोगों को बचत का खयाल ही नहीं रहता है। वे सभी आय का व्यय कर देते हैं। बचत की उपयोगिता :
बंबई में एक परिवार है। परिवार में कमानेवाले दो थे। पिता और पुत्र । पिता प्रतिमास दो हजार रुपये कमाते, लड़का प्रतिमास डेढ़ हजार रुपये कमाता था। परन्तु घर का खर्च और फालतू खर्च इतना ज्यादा था कि कुछ भी नहीं बचता था। घर में एक लड़की भी थी। उसकी भी शादी होनेवाली थी। लड़के की शादी हुई। जिस कन्या के साथ उसकी शादी हुई, वह लड़की काफी समझदार थी। उसने ससुराल में आकर सभी का प्रेम संपादन कर लिया | घर की आर्थिक परिस्थिति से भी परिचित हो गई। उसने देखा कि घर
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