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प्रवचन-५९
११९ हमारे घर की समाज में घोर बदनामी हो गई थी, इसलिए मैंने बंबई छोड़ दिया । मेरे जीवन में मैंने परिवर्तन कर दिया। दो साल के बाद बहन की शादी हो गई | माँ का स्वर्गवास हो गया और अब मैंने अपने जीवन को धर्ममय बनाने का सोचा है। ___ मैंने आपको संक्षेप में यह घटना कही है। इस प्रकार की घटनाएँ एक-दो या पाँच-पचास ही नहीं हैं, हजारों-लाखों की संख्या में हैं। निंदित पापकार्य अपने देश में ही नहीं, सारे विश्व में बढ़ रहे हैं। इस विकट परिस्थिति में अपने आपको बचा लेना.... सरल कार्य तो नहीं है, फिर भी जिस सद्गृहस्थ को धर्मपुरुषार्थ करना है, आत्मकल्याण की साधना करनी है, उस गृहस्थ को तो इन पापमय प्रवृत्तियों का त्याग ही करना होगा। अशांति की जड़ : सामान्य धर्मों की उपेक्षा :
सभा में से : हम लोगों को तो वैसी पाप-प्रवृत्तियाँ प्रिय हैं, इसलिए तो हम वैसे सिनेमा देखने जाते हैं!
महाराजश्री : तो फिर आप धर्मपुरुषार्थ नहीं कर सकते। गृहस्थजीवन के सामान्य धर्मों का पालन किये बिना विशेष धर्मों का पालन कैसे होगा? यदि सामान्य धर्मों की उपेक्षा कर, विशेष धर्मों का पालन करते हो तो आत्मकल्याण होने का नहीं है। आत्मकल्याण तो दूर रहा, वर्तमान जीवन भी शान्तिमय नहीं रहेगा। विशिष्ट धर्मक्रियाएँ करनेवाले भी जो अशान्ति की शिकायत करते हैं, इसका मूल कारण यही है - सामान्य धर्मों की उपेक्षा । निन्दनीय कार्य करते रहते हैं और विशेष धर्मक्रियाएँ भी करते रहते हैं। यह तो ऐसी बात है कि जैसे कोई मरीज दवाई लेता हो और कुपथ्य सेवन भी करता हो। क्या इस प्रकार रोगमुक्ति मिल सकती है? वैसे यदि मनुष्य अति निन्दनीय पापों का सेवन करता रहे और विशिष्ट धर्मक्रियाएँ भी करता रहे, तो क्या उसकी संसार से मुक्ति हो सकती है? ___ आप तो जैन हैं, परन्तु जो जैन नहीं हैं, अजैन हैं, उनके जीवन में भी ये घोर पाप नहीं होने चाहिए | सुखमय-शान्तिमय जीवन जिस किसी को व्यतीत करना है, उसको इन पापों का त्याग करना ही होगा। __मांसाहार, शराब, जुआ, परस्त्रीगमन (स्त्री के लिए परपुरुषगमन) और गुण्डागर्दी.... जैसे पाप किसी भी सद्गृहस्थ के जीवन में नहीं होने चाहिए। इसलिए ऐसे मित्र ही नहीं होने चाहिए कि जो ऐसे अधम कृत्य करते हों। वैसे मित्र ही नहीं बनायें।
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