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प्रवचन-५३
४९ वह बूढ़ा आदमी तो स्तब्ध रह गया। निरालाजी के सामने ही देखता रहा। क्या बोलना, उसकी समझ में नहीं आ रहा है। उसने कहा : 'भैया, कोई जान-पहचान नहीं....' उसको बीच में ही बोलता रोकते हुए निरालाजी बोले : 'बाबा, मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ, मेरे करोड़ों भाइयों में से तुम एक हो।'
और वे स्वयं बैठकर उस वृद्ध को जूते पहनाने लगे। _निरालाजी के सौजन्य से, सहृदयता से और उदार मन के कारण ही उनके अनेक मित्र थे और वे निरालाजी की चिंता करते थे। निरालाजी के कारण उन मित्रों की भी दुनिया में प्रशंसा होती थी। अच्छे पुरुष के परिचय से, परिचय करनेवालों की भी प्रशंसा दुनिया करती है। सम्राट संप्रति की कृतज्ञता :
जैसे सौजन्य बड़ा गुण है, वैसे कृतज्ञता भी बहुत बड़ा गुण है। उपकारी का उपकार नहीं भूलना, उपकारी के प्रति कृतज्ञभाव बनाये रखना और उपकार का बदला उपकार से चूकाने की भावना रखना, एक बहुत बड़ा गुण है। सम्राट संप्रति जो कि महान् अशोक का पौत्र था, अपने महल के झरोखें में बैठा था। राजमार्ग पर लोगों की चहल-पहल देख रहा था। वहाँ उसने कुछ साधुपुरुषों को रास्ते पर गुजरते देखा। सबसे आगे जो साधुपुरुष चल रहे थे वे प्रभावशाली थे.... प्रतिभावंत थे। सम्राट संप्रति उनको देखता ही रहा....उनके मन में 'मैंने इन महापुरुष को कहीं पर देखा है, मैं इनको जानता हूँ, याद नहीं आता कि कहाँ मैंने देखा है....।' विचारों का काफिला चला और अचानक पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। यानी सम्राट संप्रति अपने पूर्वजन्म को देखने लगे! अचानक उसके मुँह से चीख निकल पड़ी : 'ओ गुरुदेव!' और संप्रति शीघ्र महल से नीचे उतर कर, राजमार्ग पर जहाँ आचार्यदेव आर्य सुहस्ति खड़े थे, वहाँ पहुँच गया और साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया!
आँखो में हर्ष के आँसू छलक रहे थे। हृदय में अपूर्व भक्ति का सागर उछल रहा था! 'गुरुदेव, मुझे पहचाना? 'हाँ, वत्स, तुझे पहचान लिया! तू मेरा शिष्य! तू पूर्वजन्म में मेरा शिष्य था!' 'गुरुदेव, इस महल में पधारें....मुझे आपसे कुछ बात करनी है।'
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