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प्रवचन-५३
गुण प्रसार के लिए गुणीजनों का बहुमान करें :
सभा में से : कीर्तिदान बढ़ा है न! महाराजश्री : दान देनेवाले की कीर्ति बढ़नी चाहिए न? क्या आप यह चाहते हो कि भोगी की कीर्ति बढ़नी चाहिए? दाताओं की कीर्ति नहीं बढ़नी चाहिए, ऐसा चाहते हो? यदि आप दाता हैं तो आपके हृदय में कीर्ति की कामना नहीं होनी चाहिए, परन्तु दूसरे दाताओं की कीर्ति फैलाने में पीछे नहीं रहना चाहिए | दूसरे दाताओं की प्रशंसा करने में कृपण नहीं बनना चाहिए। दाताओं की, शीलवानों की, तपस्वियों की जी भरकर प्रशंसा करो! इससे, दुनिया में दान, शील और तपश्चर्या की महिमा बढ़ेगी। यह नियम है दुनिया में, जिस गुण की या दोष की प्रशंसा बढ़ेगी वह गुण या दोष समाज में बढ़ता रहेगा!
सिनेमा देखनेवाले सिनेमा की प्रशंसा करना बंद कर दें, एक्टर और एक्ट्रेसों की प्रशंसा करना बंद कर दें, उनको फैशनों की प्रशंसा बंद हो जायं, तो देखना धीरे-धीरे सिनेमा के थियेटर बंद होने लगेंगे! फैशनपरस्ती बंद हो जायेगी।
गुणवान् पुरुषों की संख्या बढ़ाने के लिए गुणवानों की प्रशंसा करनी चाहिए, गुणों की प्रशंसा करनी चाहिए। जो गुण अपने में नहीं हो, दूसरों में हो, उस गुण की भी प्रशंसा करनी चाहिए। गुणवानों का संघ-समाज में महत्त्व बनाये रखना चाहिए | मोक्षमार्ग गुणवानों से चलता है, धनवानों से नहीं। इसीलिए गुणवानों का संपर्क-सम्बन्ध बनाये रखो । गुणवान् बनने का आपका आदर्श बनाये रखो। 'मैं निर्गुण हूँ परन्तु मुझे गुणवान् होना है, मैं गुणवान् बनूँगा ही....।' ऐसा संकल्प करो | एक कवि ने परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहा है : हुं निर्गुण पण ताहरा संगे
गुण लहुं तेह घटमान, निंबादिक पण चंदन संगे
चंदन सम लहे तान.... हो जिनजी! गुणनिधि गरीबनिवाज! जिस प्रकार नीम का वृक्ष कडुआ होने पर भी, चन्दन-वृक्ष के संपर्क से
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