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प्रवचन- ५४
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चाहिए, कहाँ पर नहीं रहना चाहिए । हमारे तो पुत्र - पत्नी आदि परिवार नहीं होता है न? फिर भी, संयमधर्म की सुरक्षा की दृष्टि से नियम बनाये गये हैं! साध्वी के लिए तो विशेष सख्त नियम बनाये गये हैं! क्योंकि उनके जीवन की सुरक्षा, साधु से भी ज्यादा महत्त्व रखती है । जैसे, साधु जंगल में किसी बिना दरवाजे के मकान में भी रात्रि व्यतीत कर सकता है, परन्तु साध्वी वैसे स्थान में नहीं रह सकती है। साध्वी को वैसे मकान में रात्रिवास करने का होता है कि जो मकान भीतर से बंद हो सकता हो । जंगल में तो रात्रि के समय रूकने का ही नहीं होता। गाँव में भी, राजमार्ग पर के मकान में नहीं रूकने का है। उपाश्रय के पास यदि निम्नस्तर के और विधर्मी लोगों के घर हों तो वैसी जगह में साधु-साध्वी को नहीं रहना चाहिए ।
मकान कितना भी अच्छा हो, सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण हो, परंतु यदि वह एकान्त में पड़ता हो, अथवा दूसरे मकानों से सटकर आया हो, पसंद नहीं करना चाहिए। वैसे पड़ोस यदि संस्कारी - सदाचारी न हो तो वहाँ नहीं रहना सदाचारी न हो
चाहिए । श्रीमन्त हो, परन्तु संस्कारी न हो, धनवान् हो परन्तु तो, वैसे स्थान में नहीं रहना चाहिए ।
सत्य घटना ३ :
अहमदाबाद की एक घटना है । 'एलिसब्रिज एरिये' में एक अच्छा बंगला था। दो मंजिला बंगला था। बंगले में मात्र एक महिला ही रहती थी, वही बंगले की मालकिन थी । काम करनेवाली एक औरत थी, जो दिन में सेठानी का काम करती थी, रात में अपने घर चली जाती थी । सेठानी ने सोचा कि ‘यदि कोई अच्छा परिवार मेरे बंगले में किरायेदार आ जाय तो अच्छा रहे।' उसने दो-चार रिश्तेदारों से बात की। एक परिवार मिल गया । अच्छा परिवार था। पति-पत्नी और तीन बच्चे थे। बच्चे भी शरारती नहीं थे, सुशील और संस्कारी थे। बंगले के ऊपर का भाग किराये पर मिल गया । सेठानी को भी 'कंपनी' मिल गई और इस परिवार को, जो 'कच्छी' परिवार था, उसको अच्छा मकान मिल गया। परिवार के सभी लोगों का स्वभाव अच्छा था, व्यवहार अच्छा था, इसलिए सेठानी के साथ घर जैसा सम्बन्ध हो गया ।
सेठानी की उम्र होगी ४०/४५ साल की । पैंतीस वर्ष की उम्र में ही वैधव्य का दुर्भाग्य उदय में आया था। दस लाख रुपये की संपत्ति होगी। सेठानी का रूप भी था और बोलने - चलने का तरीका भी अच्छा था। जब कभी, चारूभाई की पत्नी भानु को अपने मायके जाना पड़ता अथवा वह M. C. में होती तब
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