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प्रवचन-५१ प्रजा उतनी शिक्षित नहीं है, देश के प्रति उतनी निष्ठावाली नहीं है। विशेष अधिकार तो प्रबुद्ध प्रजा को देने के होते हैं। देशप्रेमी प्रजा को देने के होते हैं। इस देश में प्रजा ज्यादा उदबुद्ध नहीं है, ज्यादा देशप्रेमी नहीं है। इसका नतीजा देखने को मिल रहा है। प्रतिदिन दंगे होते हैं, हड़तालें होती हैं, पत्थरबाजी होती है, दुकानें जलायी जाती हैं, सरकारी मकान जलाये जाते हैं, सार्वजनिक सुख-सुविधाओं को नुकसान पहुँचाया जाता हैं....| जनजीवन में खतरे पैदा होते रहते हैं। दंगों में कई मनुष्य भी मारे जाते हैं। इसलिए, जिसको शान्ति से और संतोष से जीवन जीना है उनको ऐसे बड़े शहरों में नहीं रहना चाहिए। मेहनत के बगैर पैसा नहीं मिलता :
सभा में से : यदि बड़े शहरों में नहीं रहें तो आजीविका कमाना मुश्किल हो जाये! गाँवों में व्यापार ठप्प हो गये हैं।
महाराजश्री : आपकी बात अर्धसत्य है! क्या बड़े शहरों में आजीविका कमानेवाले ही रहते हैं? जिनके पास लाखों रूपये हो गये हैं, वे लोग शहर क्यों नहीं छोड़ते? दूसरी बात, मात्र आजीविका कमाने की इच्छावाले गाँवों में भी छोटा-सा धंधा करके आजीविका कमा सकते हैं। परन्तु वहाँ कुछ विशेष परिश्रम करना पड़ता है। आजकल पढ़े-लिखे लोगों को परिश्रम नहीं करना है। बिना परिश्रम किये लखपति बन जाना है | गाँवों में इस प्रकार श्रीमंत नहीं बन सकते। इसलिए लोग गाँवों को छोड़-छोड़कर बड़े शहरों में जा बसते हैं। उपद्रवों के बीच जीना मंजूर है परन्तु शहर नहीं छोड़ना है! ऐसा क्यों हो रहा है, जानते हो? धर्मपुरुषार्थ की दृष्टि का अभाव हो गया है। अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ की दृष्टि में भी भ्रमणा प्रविष्ट हो गई है। शरीर-स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति की उपेक्षा हो गई है। दृष्टि हो गई है ज्यादा से ज्यादा रुपये कमाने की और ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधा प्राप्त करने की। ठीक है, 'साइड़' में यदि कोई धर्मक्रिया होती हो तो कर लेने की! वह भी फुरसत हो तो!
० गाँवों में ज्यादा सुख-सुविधाएँ प्राप्त नहीं होती हैं। ० गाँवों में ज्यादा मनोरंजन के स्थान नहीं मिलते हैं। ० गाँवों में बाजार में घूमने और बाहर का खाने-पीने का नहीं मिलता है! ० गाँवों में फैशन परस्ती नहीं होती है।
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