________________
४०
चाणक्यसूत्राणि
इसलिये कल्याणार्थी मनुष्य अपने शरीरस्थ शत्रु आलस्यको पददलित करके रखे, तब ही ऐहिक अभ्युदय और मानसिक उत्कर्ष पासकता है ।
अलसस्य लब्धमपि रक्षितुं न शक्यते ॥ ३९ ॥ अलस सत्यहीन प्रयत्नहीन व्यक्ति के कर्तव्यपालनमें प्रमादी होनेसे उसका प्राप्त राज्यैश्वर्य भी सुरक्षित नहीं रह पाता।
विवरण--- देव यदि मालसीको कुछ दे भी दे तो उससे उस देवदत्त द्रव्य की रक्षा नहीं होती।
अलसो मन्दबुद्धिश्च सुखी च व्याधिपीडितः। निद्रालुः कामुकश्चैव षडेते कर्मगर्हिताः ॥ थालसी मन्दबुद्धि सुखासक्त रोगी निद्रालु तथा कामुक ये ६ लोग निन्दितकर्मा माने गये हैं। उद्यम उत्साह तथा अध्यवसाय ही पुरुषके मालस्य का विरोध करते और उसे कर्ममें प्रवृत्त रखते हैं । इसलिये भूनिकामी लोग सदा उद्यम उरलाह तथा अध्यवसायसे सम्पन्न रहें ।
न चालसस्य रक्षितं विवर्धते ॥४०॥ अलस सत्यहीन प्रयत्नहीन व्यक्तिका दैववश संचित राज्य श्वर्य कुछ कालतक सुरक्षित दीखने पर भी उसके बुद्धिमान्द्यसे वृद्धिको प्राप्त नहीं होता।
विवरण- उसके राज्यश्वर्यकी वृद्धि न होना ही उसकी भरक्षितता अर्थात् अनिवार्य विनाश है । क्योंकि आलस्य देहस्थ मन्तःशत्रु है इसलिये मानव मालस्य रूपी दोषका सदा विष्ठा मादि दैहिक मलोंके समान त्याग करता रहे । सूत्र कहना चाहता है कि मनलस ही लब्धको रक्षा करपाता है, और उसीकी वृद्धि होना अवश्यंभावी होता है।
पडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन । सत्यं दानमनालन्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥ विदुर