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28 / भारत के दिगम्बर जैन तीर्थं (कर्नाटक)
कारेयगण के गुणकीर्ति मुनि के शिष्य इन्द्रकीर्ति स्वामी का ( प्राचीन नाम सुगन्धवति ) थी । इस वंश ने 1229 ई. तक शासन किया। उसने तथा उसके मुनियों के आहार आदि के लिए दान तथा मन्दिरों की आय के लिए कुछ गाँव समर्पित कर दिए थे।
शिष्य था । उसकी राजधानी आधुनिक सौन्दत्ति राष्ट्रकूट वंश की अधीनता में लगभग 978 ई. से वंशजों ने सौन्दत्ति में जिनमन्दिरों का निर्माण कराया ।
इस वंश के एक शासक लक्ष्मीदेव ने 1229 ई. में अपने गुरु मुनिचन्द्रदेव की आज्ञा से मल्लिनाथ मन्दिर का निर्माण कराके विविध दान दिये थे। डॉ. ज्योतिप्रसाद के अनुसार, "मुनिचन्द्रदेव राजा के धर्मगुरु ही नहीं, शिक्षक और राजनीतिक पथ-प्रदर्शक भी थे उन्हीं की देखरेख में शासन कार्य चलता था। स्वयं राजा लक्ष्मीदेव ने उन्हें र-राज्य संस्थापक-प्राचार्य उपाधि दी थी। कहा जाता है कि संकटकाल में उन्होंने प्रधानमन्त्री का पद ग्रहण कर लिया था और राज्य के शत्रुओं का दमन करने के लिए शस्त्र भी धारण किए थे । संकट निवृति के उपरान्त वह फिर से साधु हो गये थे । वह काणूरगण के आचार्य थे ।”
गंगधारा के चालुक्य
सुप्रसिद्ध चाल्युक्य वंश की एक शाखा ने गंगधारा (संभवतः प्राचीन पुलिगेरे या आधुनिक लक्ष्मेश्वर नगरी या उसका उपनगर) राजधानी में राष्ट्रकूटों के सामन्त के रूप में 800 ई. से शासन किया। दसवीं सदी में गंगधारा की प्रसिद्धि एक राजधानी के रूप में थी। इस वंश के अरिकेसरी राजा ने कन्नड भाषा के महान जैन कवि पम्प को भी आश्रय दिया था। उसके उत्तराधिकारी बट्टिग द्वितीय के शासनकाल में ही प्रसिद्ध जैनाचार्य सोमदेव सूरि ने गंगधारा में अपने निवास के समय सुप्रसिद्ध काव्य 'यशस्तिलक चम्पू' तथा प्राचीन भारतीय राजनीति सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में प्रसिद्ध 'नीतिवाक्यामृत' की रचना कौटिल्य के अर्थशास्त्र की सूत्र मंत्री में की थी। प्राचीन भारतीय राजनीतिक सिद्धान्तों के अध्ययन के सिलसिले में आज भी यह ग्रन्थ विश्वविद्यालयों में पठित संदर्भित किया जाता है। उपर्युक्त राजा ने ही लक्ष्मेश्वर में 'गंग कन्दर्प' जिनालय का निर्माण कराया था। इस वंश के राजा जैनधर्म के अनुयायी रहे।
को गालव वंश
इस राजवंश ने कर्नाटक के वर्तमान कुर्ग और हासन जिलों के बीच के क्षेत्र पर जो कि कावेरी और हेमवती नदियों के बीच था शासन किया। उस समय यह प्रदेश कोंगलनाट कहलाता था। इस वंश का सम्बन्ध प्रसिद्ध चोलवंश से जान पड़ता है। सम्राट् राजेन्द्र चोल ने इसके पूर्वपुरुष को अपना सामन्त नियुक्त किया था। यह वंश ग्यारहवी सदी में अवश्य विद्यमान था (शिलालेख बहुत कम मिले हैं) और जैनधर्म का अनुयायी था। सोमवार ग्राम में पुरानी बसदि के एक पाषाण पर लगभग 1080 ई. के शिलालेख से विदित होता है। कि राजेन्द्र पृथ्वी कोंगाल्व नामक इस वंश के राजा ने 'अदटरादित्य' नामक चैत्यालय का निर्माण अपने गुरु मूलसंघ, कानूरगण, तगरिगळ गच्छ के गण्डविमुक्तिदेव के लिए कराया था और पूजा-अर्चना के लिए दान दिया था । आचार्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव का वह बड़ा आदर करता था और उसने अपने शिलालेख के प्रारम्भ में उनकी बड़ी प्रशंसा की है। लेख में यह भी उल्लेख है कि उसके शिलालेख की रचना चार भाषाओं के ज्ञाता सन्धिविग्रहक नकुलार्य ने की थी। इस राजा ने अपने को 'औरेयुरपुरवराधीश्वर' तथा 'सूर्यवंशी -महामण्डलेश्वर' कहा है।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि यह वंश चौदहवीं शताब्दी या उसके बाद तक शासन करता रहा और