Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[शकारादि वातिक कामिकेनापि पैत्तिके पयसा हिता। सर्वमेकत्र सम्म गुटिकां कारयेत्ततः। श्लेष्मले मूत्रसंयुक्ता पुष्पस्याअनके हिता ॥ । वारिणा तिमिरं हन्ति चार्बुद हन्ति मस्तुना॥ भृजराजरसेनापि त्रिदोषशमने हिता ॥ | पिच्चटं मधुना हन्ति स्त्रीक्षीरेण तथाऽर्जुनम् ।
शंखपुष्पी, लोध, शंखनाभि और मनसिल; | शंखचूर्ण ४ भाग, मनसिल २ भाग, काली. इनका चूर्ण समान भाग लेकर सबको कांजीमें मिर्च १ भाग, और पीपल आधो भाग लेकर सबको पीस कर गोलियां बनावें और छायामें सुखा लें। पानीके साथ पीसकर गोलियां बनावें ।
इन्हें आंखमें लगानेसे नेत्र पुष्प (फूला) नष्ट इन्हें पानीमें घिसकर आंखमें लगानेसे तिमिर; होता है।
दही के पानीमें घिसकर लगानेसे नेत्राबुंद; शहदमें ___ वातदोष हो तो इन्हें कांजीमें घिसकर, पित्तदोष घिसकर लगानेसे पिच्चट और स्त्री के दूधमें घिसकर हो तो दूधमें घिसकर, कफ हो तो गोमूत्रमें घिस- लगानेसे अर्जुन नामक नेत्ररोगका नाश होता है। कर और त्रिदोषमें भंगरेके रसमें घिसकर आंखमें
(७४९६) शङ्खायञ्जनम् (१) लगाना चाहिये।
(व. से. । नेत्ररोग.) (७४९४) शादिवटिका
नदीजशक्षत्रिकटून्यथाअनं (धन्व. । चक्षुरो.)
मनःशिला द्वे च निशे गवां शकृत् । चतुर्भागानि शङ्खस्य तदर्दैन मनःशिला। सचन्दनेयं गुटिकाय चानने . सैन्धवश्च तदर्थेन एतत्पिष्टोदकेन च ॥
प्रशस्यते रात्रिदिनेष्वपश्यताम् ।। छायाशुष्कां तु वटिकां कृत्वा नयनमधयेत् ॥
| शंख, सोंठ, मिर्च, पीपल; सुरमा, मनसिल, तिमिरं पटलं हन्ति पिञ्चटस्य महौषधम् ॥ !
हल्दी, दारुहल्दी, गायका गोबर और लालचन्दन; शंखचूर्ण ४ भाग, मनसिल २ भाग, और इनका चूर्ण समान भाग लेकर पानीमें घोटकर सेंधा नमक १ भाग लेकर सबको पानीके साथ | गोलियां बना लें। घोटकर गोलियां बनावें और छायामें सुखावें। इन्हें आंखमें आंजनेसे नक्तान्ध्य ( रतौंधा )
इन्हें आंखोंमें आंजनेसे तिमिर, और पटलका और दिवान्ध्य नामक नेत्ररोग नष्ट होते हैं। नाश होता है।
(७१९७) शङ्खाद्यञ्जनम् (२) (७४९५) शङ्खादिवटी
(वा. भ. । उ. अ. १३) ( यो. र.; वृ. नि. र. । नेत्ररोगा.) शङ्खप्रियङ्गनेपालीकटुत्रिकफलत्रिकैः। शङ्खस्य भागाश्चत्वारस्तदर्धेन मनःशिला। दृग्वैमल्याय विमला वतिः स्यात्कोकिला पुनः मनः शिलार्ध मरिच मरिचान पिप्पली ॥ कृष्णलोहरजो व्योषसैन्धवत्रिफलाअनः ॥
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