Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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रसपकरणम् ]
पञ्चमो भागः
(८२६४) सूतादिवटी फिर उसमें अन्य ओषधियां मिला कर बकरीके ( र. चं. ; वृ. नि. र. । उपदंशा.)
दूधमें खरल करके २-२ रत्तीको गोलियां
बना लें। शुद्धम्तं च भल्लातं पिप्पलीमूलपिप्पली।
इनके सेवनसे सूतिका रोग, ज्वरातिसार, आकल्लकं जातिपत्री सुरकं देवपुष्पकम् ॥
_कास श्वास और अतिसारका नाश होता है। मर्दयेत्समभागेन पुराणगुडमिश्रितम् ।
(८२६६) मूतिकान्तकरसः उपदंशेषु सर्वेषु प्रमाणं रक्तिका वटी ॥
(रसे. सा. सं. । सूतिका. ; र. रा. सु.। __शुद्ध पारद, भिलावा, पीपलामूल, पीपल, ' सूतिका. ; भै. र.। खोरोगा.) अकरकरा. जावत्री, वंग-भस्म ( या तालमखाना ) रसाभ्रगन्धकव्योषं सुवर्णमाक्षिकं विषम् । और लौंग-इनका चूर्ण समान भाग ले कर सबको सर्वमेकीकृतं चूर्ण खादेद्रक्तिचतुष्टयम् ॥ एकत्र खरल करके पुराने गुड़में मिलाकर १-२ मृतिकाग्रहणीरोग वहिणन्यश्च नाशयेत् । रत्तीकी गोलियां बना लें।
अतिसारश्च शमयेदपि वैधविवर्जितम् ॥ इनके सेवनसे समस्त प्रकारके उपदंश नष्ट कासश्वासातिसारनो वाजीकरण उत्तमः ।। होते हैं।
शुद्ध पारद, अभ्रक भस्म, शुद्ध गंधक, सोंठ,
मिर्च, पीपल, स्वर्ण-माक्षिक -भस्म और शुद् बछ(८२६५) मृतिकानो रसा
नाग समान भाग ले कर प्रथम पारे गंवककी ( भै. र. ; र. रा. सु. ; र. चं. ; रसे. सा. सं.। कजली बनावें और फिर उसमें अन्य ओष
सूतिका. ; रसे. चि. म. । अ. ९) धियोंका चूर्ण मिला कर अच्छी तरह सरल रसगन्धकलौहानं जातीकोषं सुवर्चलम् । करें । समांशं मर्दयेत्खल्ले छागीदुग्न पेषयेत् ।।। मात्रा-४ रत्ती । गुमाइयप्रमाणेन मृतिकातकनाशनः ।
इनके सेवनसे सूतिका रोग, संग्रहणी, अग्निज्वरातिसाररोगनः कासश्वासातिसारनत | मांध, भयंकर अतिसार, कास और स्वासका नाश सूतिकानो रसो नाम ब्रह्मणा परिकीर्तितः ॥ होता है।
। होता है। यह रस उत्तम वाजीकरण भी है।
(८२६७) मृतिकाभरणरसः ___ शुद्ध पारद, गन्धक, लोह-भस्म, अभ्रक
(र. चं. ; यो. र. । वाता. ; भै. र. । स्त्री.) भस्म, जावत्रीका चूर्ण और काले नमकका चूर्ण
सुवर्ण रजतं तानं प्रवालं पारदं समम् । ( पाठान्तरके अनुसार स्वर्ण-भस्म ) समान भाग
गन्धकं चाभ्रकं तालं शिला त्रिकटु रोहिणी॥ ले कर प्रथम पारे गंधकको कजली बनावें और
एतानि समभागानि रविक्षीरेण मर्दयेत् । १ “ सुवर्णकमिति ” पाठान्तरम् । चित्रमूलकपायेण पुनर्नवरसेन च ।।
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